मैं हूँ, मुर्दा या जिंदा….

मैं हूँ, मुर्दा या जिंदा…..
ये अहसास दिलाने की खातिर,
मैं जोरों से चिल्लाती हूं
मैं शोर भी खूब मचाती हूँ
लगती हूँ जोरों से हँसने
और रोने का ढोंग रचाती हूँ,
मैं हूँ, मुर्दा या जिंदा…..
ये एहसास दिलाने की ख़ातिर,
रख देती हूँ छुपा कर कुछ चीजें
फिर उनका पता लगाती हूँ
सौ बार पूंछती हूँ सबसे,
फिर जमकर डांट लगाती हूँ,
मैं हूं, मुर्दा या जिंदा….
ये एहसास दिलाने की खातिर
मैं फोन को कान से लगाती हूं
और जाने किस से घंटों झूठमूठ बतलाती हूँ
सुनती नहीं हूं एक किसी की
बस अपनी ही सुनाती जाती हूं,
मैं हूं, मुर्दा या जिंदा…..
ये एहसास दिलाने की ख़ातिर।।
मधु गुप्ता “अपराजिता”
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