पत्नी की दिव्यदृष्टि
रोज लुभाती पति को पत्नी कहकर बाबू सोना,
पति सम्मोहित हो जाता है, करती जादू टोना।
पहले भेजा गरमाती फिर ठंडा तेल लगाती,
कभी गरम तो कभी नरम वह कितने रंग दिखाती।
जाना हो पीहर जिस दिन वो मंद-मंद मुस्काती,
आना जो ससुराल पड़े तो पत्थर सी बन जाती।
गृह मंत्रालय, अर्थ जगत हो या हो दुनियादारी,
गूगल जी यदि हार गए तो बतलाती है नारी।
अपना ही सामान जिसे पति खोज-खोज कर हारे,
पत्नी में वह दिव्यदृष्टि है पल में ढूँढे सारे।
पति जब भी खुश होता पत्नी अपने पास बुलाती,
घर के हैं कुछ काम अधूरे धीरे से बतलाती।
याद दिलाकर बीती बातें रोज बजाती बाजा,
पाँच बरस पहले की गलती को कर देती ताजा।
झुकना पड़ जाए झुक जाना तनिक न देर लगाना,
पत्नी से जो बचना है तो उसकी महिमा गाना।
हँसने में गुस्सा रहता, गुस्से में प्यार समाया,
नहीं समझ पाएगी नारी भी नारी की माया।
चाहे जैसी भी हो पत्नी गृहलक्ष्मी कहलाती,
जीवन की उलझन को अक्सर पत्नी ही सुलझाती।
पत्नी से ही रंग हमारे जीवन में भर पाता,
नभ से ऊँचा इस दुनिया में पति-पत्नी का नाता।
– आकाश महेशपुरी
दिनांक- 26/02/2025