स्वाति मुक्ता
///स्वाति मुक्ता///
मधु स्वाति के मुक्ता तुम तो,
मेरे संसार जगत आकार।
प्रिय-प्रति आत्म निलय तुम,
अन्तर की आभा के आधार।।
मधु पूरित आत्म रत्नाकर,
उठती चंचल उर्मि प्रतिपल।
उनकी प्राण प्रियता पाने,
होती रहती अन्तर खलबल।।
बढ़ती चिर आस संजोये,
प्रिय उषा ने सिंदूर बोये।
करती यह मनुहारें शीतल,
पल क्षण मन धुलि धोए।।
संतत सुस्वर संगीत लीन,
प्राण बनकर प्रणय तुहीन।
तेरे उर मानस पटल की,
स्मृति भरती सुंदर पुलिन।।
घन वैभवी धरा पर उड़,
पुरधर अनुलेख अलिक।
धरा धन्य भू अंचल पर,
जगती में परिमेय पथिक।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)