“मिट्टी के घरौंदे”

मिट्टी के घरौंदों से याद आया…..
नानी-दादी लिपटी और पोतती वो मिट्टी के घरौंदे,
घरौंदों के अंदर बनाती अनाज रखने को मिट्टी के कोठले
और भरकर अनाज पूरे साल का उन कोठलों को बंद कर ऊपर से देती पोत….
वो मिट्टी के घरौंदे जहां जगह-जगह दीवारों पर बेटियां और बहुएं करती चित्रकारी,
और रंग देती वो दीवारें अपने भाव और तमाम सपनों से,जो हृदय में होते सजोए हुए,
और फिर वो मिट्टी के घरौंदे हो जाते साकार हर सपना के,
उनकी हर दीवार रह रहकर बोलती उन तमाम सपनों और ख्वाहिशों को।
घरौंदों के बाहर लगे पेड़ जहां बैठते बुजुर्गों के हुक्के की गुड़- गुड़, जवानों की कह-कह और बच्चों की खेलने की आवाज़ें भर देती प्रेम की मीठी सी पींग उन घरौंदों मैं।
वो मिट्टी के घरौंदे कच्चे कम पक्के ज्यादा थे रिश्तों और भावनाओं के…..
आते हैं आज भी याद,
वो मिट्टी के घरौंदे जो थे ज्यादा सच्चे और पक्के।।
मधु गुप्ता “अपराजिता”
✍️✍️23/2/2025