#ये_भी_होना_ही_था।

#ये_भी_होना_ही_था।
■ मुरदारों का एक ही हश्र
[प्रणय प्रभात]
कभी पद्मश्री डॉ. बशीर “बद्र” साहब ने फ़रमाया था-
“तर्के-तआल्लुक़ात को एक लम्हा चाहिए।
लेकिन तमाम उम्र मुझे सोचना पड़ा।।”
बावजूद इसके सब्र का एक बांध होता है, जो ढह ही जाता है। एक न एक दिन। हमारा भी ढह गया एक हफ़्ता पहले। अब तमाम मुर्दार नाते पिरामिड बन चुके हैं। हमेशा के लिए।।
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