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8 Feb 2025 · 9 min read

गीता के छन्द : परिचय 3/5

छन्द परिचय
वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो गीता के सभी श्लोक वर्णिक छन्दों में निबद्ध हैं। वर्णिक छन्द के प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या निश्चित होती है इसलिए इन छन्दों का प्राथमिक वर्गीकरण वर्णों की संख्या के आधार पर किया जाता है। एक से छब्बीस तक वर्णों के चरणों वाले छन्दों के अलग नाम हैं जैसे 8,9,10,11,12 … वर्णों के चरणों वाले छन्दों को क्रमशः अनुष्टुप, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती … आदि नामों से जाना जाता है।
दृष्टव्य :
अनुष्टुब् गायत्रै:।
(आचार्य पिंगल नाग कृत छन्दःसूत्रम् 3.23)

अनुष्टुप और त्रिष्टुप
गीता के समस्त छन्दों को प्रथमतः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- अनुष्टुप जिसके चारों चरणों में 8-8 वर्ण होते हैं और त्रिष्टुप जिसके चारों चरणों में 11-11 वर्ण होते हैं । गीता के कुल 700 श्लोकों में से 645 अनुष्टुप और 55 त्रिष्टुप छन्द हैं। वैदिक छन्द तुकान्त नहीं होते हैं, इसलिए यहाँ पर तुकान्तता की चर्चा करना अनावश्यक है।

अनुष्टुप
अनुष्टुप वर्ग में दो प्रकार के छन्द हैं। एक प्रकार के वे छन्द हैं जिनके चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण के 8 वर्णों में लघु-गुरु का क्रम सुनिश्चित होता है। ऐसे छन्दों को समवृत्त या गण-छन्द या मापनीयुक्त वर्णिक छन्द कहते हैं। इस प्रकार के छन्दों के कुल 256 भेद संभव हैं। गीता में इस प्रकार के अनुष्टुप छन्दों को प्रयोग नहीं हुआ है। अनुष्टुप वर्ग में दूसरे प्रकार के वे छन्द हैं जिनके चरण में लघु-गुरु का क्रम पूर्णतः निश्चित नहीं होता है, ऐसे छन्दों की संख्या लाखों में है। इनको ‘वर्णिक मुक्तक’ या ‘मापनीमुक्त वर्णिक’ कहते हैं। अनुष्टुप वर्ग के इस दूसरे प्रकार के छन्दों में से एक छन्द वह है जिसका प्रयोग गीता में बहुलता से हुआ है जिसे अनुष्टुप वर्ग का सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रतिनिधि छन्द मानते हुए ‘अनुष्टुप’ नाम ही दे दिया गया है। अन्यथा इस छन्द का वास्तविक नाम ‘पथ्यावक्त्र’ है किन्तु यह नाम प्रचलन में बहुत कम है। वस्तुतः अनुष्टुप जाति का एक छन्द ‘पथ्यावक्त्र’ है जिसका प्रचलित नाम भी ‘अनुष्टुप’ ही है।

पथ्यावक्त्र
यह चार चरणों का एक छन्द है जिसके प्रत्येक चरण में 8 वर्ण होते हैं और जिसके विषम चरणों में 4 वर्णों के बाद लगागा/यगण आता है तथा सम चरणों में 4 वर्णों के बाद लगाल/जगण आता है। चारों चरणों में निश्चित मात्राभार वाले वर्णों को निम्नलिखित प्रकार देखा जा सकता है, जबकि अनिश्चित मात्राभार वाले वर्णों को * से प्रदर्शित किया गया है-
* * * * ल गा गा *
* * * * ल गा ल *
* * * * ल गा गा *
* * * * ल गा ल *

उदाहरण :
लगागा
सर्वधर्मान्(परित्यज्)य
लगाल
मामेकं श(रणं व्र)ज।
लगागा
अहं त्वां सर्(वपापे)भ्यो
लगाल
मोक्षयिष्या(मि मा शु)चः।
(गीता 18.66)
गीता के अध्याय 18 के इस श्लोक 66 में विषम अर्थात पहले और तीसरे चरणों के चार वर्णों के बाद लगागा/यगण तथा सम चरणों अर्थात दूसरे और चौथे चरणों के चार वर्णों के बाद लगाल/यगण आया है जो उपर्युक्त नियम के अनुरूप है।
उपर्युक्त नियमों के साथ-साथ इस छन्द में कुछ विशेष स्थानों पर कुछ विशेष वर्ण वर्जित भी होते हैं, यथा- सभी चरणों में प्रथम वर्ण के बाद ललगा/सगण और ललल/नगण वर्जित होते हैं और सम चरणों में प्रथम वर्ण के बाद गालगा/रगण वर्जित होता है। इन वर्जित वर्णों को निम्नलिखित प्रकार देखा जा सकता है-
* ललगा * * * *
* ललगा/गालगा * * * *
* ललगा * * * *
* ललगा/गालगा * * * *

उदाहरण :
लगागा
सर्(वधर्मान्)परित्यज्य
गागाल
मा(मेकं श)रणं व्रज।
गागागा
अ(हं त्वां सर्)वपापेभ्यो
लगागा
मो(क्षयिष्या)मि मा शुचः।
(गीता 18.66)
इस श्लोक के क्रमागत चरणों के प्रथम वर्ण के बाद क्रमशः लगागा/यगण, गागाल/तगण, गागागा/मगण और लगागा/यगण आये हैं अर्थात कोई भी वर्जित गण ललगा/सगण या ललल/नगण या गालगा/रगण नहीं आया है।
उपर्युक्त दोनों नियमों का सटीकता से अनुपालन करने वाले अनुष्टुप छन्दों को पथ्यावक्त्र कहा जाता है।
गीता में प्रयुक्त कुल 700 श्लोकों में 645 अनुष्टुप छन्द हैं जिनमें से 505 पथ्यावक्त्र, 139 विपुला और 1 पूर्वा हैं।
दृष्टव्य :
पञ्चमं लघु सर्वत्र सप्तमं द्विचतुर्थयो:।
षष्ठं गुरु यथावस्थमन्यद्वक्त्रे त्वनुष्टभि।।
(आचार्य दुःखभंजन कवि कृत वाग्वल्लभ, अनुष्टुप प्रकरण 5)
वक्त्रं नाद्यान्नसौस्यातामब्धेर्योsनुष्टुभि ख्यातम्।
(आचार्य केदारभट्ट कृत वृत्तरत्नाकर 2.21)
युजोर्जेन सरिद्भर्तु: पथ्यावक्त्रं प्रकीर्तितम्।
(आचार्य केदारभट्ट कृत वृत्तरत्नाकर 2.22)

अनुष्टुब् गायत्रै:।
(आचार्य पिंगल नाग कृत छन्दःसूत्रम् 3.23)
पादस्यानुष्टुब्वक्त्रम्।
(आचार्य पिंगल नाग कृत छन्दःसूत्रम् 5.9)
न प्रथमात्स्नौ।
(आचार्य पिंगल नाग कृत छन्दःसूत्रम् 5.10)
द्वितीयचतुर्थयोरश्च।
(आचार्य पिंगल नाग कृत छन्दःसूत्रम् 5.11)
यश्चतुर्थात्।
(आचार्य पिंगल नाग कृत छन्दःसूत्रम् 5.13)
पथ्या युजो ज्।
(आचार्य पिंगल नाग कृत छन्दःसूत्रम् 5.15)

विपुला
अनुष्टुप छन्द के विषम चरणों में लगागा/यगण के स्थान पर जब कोई अन्य गण आता है तो उस छन्द को ‘विपुला अनुष्टुप’ या संक्षेप में केवल ‘विपुला’ कहते है। गीता में इनकी संख्या 139 है। विपुला अनुष्टुप तीन प्रकार के होते हैं-

(क) व्यक्तिपक्ष विपुला
इसके किसी एक लगागा/यगण के स्थान पर अन्य गण आता है। यदि अन्य गण प्रथम चरण के लगागा/यगण के स्थान पर आता है तो उसे ‘विपुला-1’ और यदि अन्य गण तृतीय चरण के लगागा/यगण के स्थान पर आता है तो उसे ‘विपुला-3’ कहते हैं और इस नाम के पूर्व उस अन्य गण के प्रथम अक्षर का प्रयोग कर लेते हैं जैसे गालल/भगण होने पर क्रमशः ‘भ-विपुला-1’ और ‘भ-विपुला-3’ कहेंगे। गीता में इनकी संख्या 128 है।

उदाहरण :
लगागा लगाल
सत्त्वात्संजा(यते ज्ञा)नं / रजसो लो(भ एव) च।
गालल लगाल
प्रमादमो(हौ तम)सो / भवतोऽज्ञा(नमेव) च। 14.17
गीता के अध्याय 14 के इस श्लोक 17 के तीसरे चरण में लगागा/यगण के स्थान पर गालल/भगण आया है, इसलिए इस छन्द का नाम ‘भ-विपुला-3’ होगा।

(ख) जातिपक्ष विपुला
इसके दोनों लगागा/यगण के स्थान पर कोई अन्य समान गण आता है। इसका नामकरण करने में विपुला से पूर्व उस अन्य गण के प्रथम अक्षर का दो बार प्रयोग कर लेते हैं जैसे प्रथम और तृतीय दोनों चरणों में लगागा/यगण के स्थान पर ललल/नगण होने पर उसे नन-विपुला कहेंगे। गीता में इनकी संख्या 3 है।

उदाहरण :
ललल लगाल
अक्षरं ब्रह्(म पर)मं / स्वभावोऽध्यात्(ममुच्य)ते।
ललल लगाल
भूतभावोद्(भवक)रो / विसर्गः कर्(मसंज्ञि)तः। 8.3
गीता के अध्याय 8 के इस श्लोक 3 के पहले और तीसरे दोनों चरणों में लगागा/यगण के स्थान पर ललल/नगण आया है, इसलिए इसका नाम ‘नन-विपुला’ होगा।

(ग) संकीर्ण विपुला
इसके दोनों लगागा/यगण के स्थान पर भिन्न-भिन्न गण आते हैं। इसका नामकरण करने में विपुला से पूर्व दोनों उन अन्य गणों के प्रथम अक्षरों का क्रमशः प्रयोग कर लेते है जैसे प्रथम और तृतीय चरणों में लगागा या यगण के स्थान पर क्रमशः भगण और नगण होने पर उसे भन- विपुला कहेंगे। गीता में इनकी संख्या 8 है।

उदाहरण :
गालल लगाल
सत्त्वं सुखे (संजय)ति / रजः कर्म(णि भार)त।
ललल लगाल
ज्ञानमावृ^(त्य तु त)मः / प्रमादे सं(जयत्यु)त। 14.9
गीता के अध्याय 14 के इस श्लोक 9 के पहले चरण में लगागा/यगण के स्थान गालल/भगण तथा तीसरे चरण में लगागा/यगण के स्थान पर ललल/नगण आया है, इसलिए इसका नाम ‘भन-विपुला’ होगा।
गीता में प्रयुक्त अनुष्टुप छन्द के विभिन्न भेदों की संख्या निम्नलिखित प्रकार है-
अनुष्टुप 645 = पथ्यावक्त्र 505 + व्यक्तिपक्ष विपुला 128 + जातिपक्ष विपुला 3 + संकीर्ण विपुला 8 + पूर्वा 1

पूर्वा
यह नामकरण इस लेखक द्वारा किया गया है। जिस पथ्यावक्त्र के किसी चरण में प्रथमाक्षर के बाद वर्जित ललल/नगण या ललगा/सगण आता है अथवा सम चरण में प्रथमाक्षर के बाद वर्जित गालगा/रगण आता है उसे पूर्वा अनुष्टुप कहते हैं, इस संज्ञा के साथ यह भी इंगित कर दिया जाता है कि कौन-सा गण किस चरण में आया है। उदाहरण के लिए गीता के तेरहवें अध्याय के 20वें श्लोक के प्रथम चरण में प्रथमाक्षर के बाद ललल/नगण आया है इसलिए इसे न-पूर्वा-1 कहेंगे। गीता में यही एक पूर्वा अनुष्टुप है।

त्रिष्टुप
त्रिष्टुप वर्ग के छन्दों में 11-11 वर्णों के चार चरण होते हैं। जब इस वर्ग के छन्द के चारों चरणों में लघु-गुरु वर्णों का एक निश्चित क्रम होता है तो उसे मापनीयुक्त वर्णिक छन्द या गण छन्द या समवृत्त कहते हैं। ऐसे त्रिष्टुप छन्दों की संख्या 2048 संभव है। इनमें मुख्यतः जिन दो छन्दों का प्रयोग और अनुप्रयोग गीता में हुआ है, वे हैं- इंद्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा।

इंद्रवज्रा
यह एक मापनीयुक्त वर्णिक छन्द या वर्णवृत्त है। इसमें 11-11 वर्णों के चार समान चरण होते हैं और प्रत्येक चरण की मापनी निम्नलिखित प्रकार होती है-
गागाल गागाल लगाल गागा
इसे गणों के रूप में इसप्रकार भी लिखा जा सकता है-
तगण तगण जगण गागा
अथवा – त त ज ग ग

उदाहरण :
गागाल गागाल लगाल गागा
निर्मान/मोहा जि/तसङ्ग/दोषा
गागाल गागाल लगाल गागा
अध्यात्म/नित्या वि/निवृत्त/कामाः।
गागाल गागाल लगाल गागा
द्वन्द्वैर्वि/मुक्ताः सु/खदुःख/संज्ञै-
गागाल गागाल लगाल गागा
र्गच्छन्त्य/मूढाः प/दमव्य/यं तत्।
(गीता 15.5)

दृष्टव्य :
इंद्रवज्रा तौ ज् गौ ग्।
(आचार्य पिंगल नाग कृत छन्दःसूत्रम् 6.16)
स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः।
(आचार्य केदारभट्ट कृत वृत्तरत्नाकर 3.28)

उपेन्द्रवज्रा
यह एक मापनीयुक्त वर्णिक छन्द या वर्णवृत्त है। इसमें 11-11 वर्णों के चार समान चरण होते हैं और प्रत्येक चरण की मापनी निम्नलिखित प्रकार होती है-
लगाल गागाल लगाल गागा
इसे गणों के रूप में इसप्रकार भी लिखा जा सकता है-
जगण तगण जगण गागा
अथवा- ज त ज ग ग

उदाहरण :
लगाल गागाल लगाल गागा
यथा प्र/दीप्तं ज्व/लनं प/तङ्गा
लगाल गागाल लगाल गागा
विशन्ति/ नाशाय/ समृद्ध/वेगाः।
लगाल गागाल लगाल गागा
तथैव/ नाशाय/ विशन्ति/ लोका-
लगाल गागाल लगाल गागा
स्तवापि/ वक्त्राणि/ समृद्ध/वेगाः।
(गीता 11.29)

दृष्टव्य :
उपेंद्रवज्रा ज् तौ ज् गौ ग्।
(आचार्य पिंगल नाग कृत छन्दःसूत्रम् 6.17)
उपेंद्रवज्रा जतजास्ततो गौ।
(आचार्य केदारभट्ट कृत वृत्तरत्नाकर 3.29)

उपजाति
जब किसी छन्द में एक से अधिक छन्दों के चरण उपस्थित होते हैं तो उसे उपजाति कहते हैं। उपजाति दो प्रकार के होते हैं- (क) मुख्य उपजाति, जिसमें इंद्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के चरणों का सम्मिश्रण होता है और (ख) मिश्रित उपजाति, जिसमें इंद्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के अतिरिक्त अन्य छन्दों के चरणों का भी सम्मिश्रण होता है।

दृष्टव्य :
आद्यन्तावुपजातयः।
(आचार्य पिंगल नाग कृत छन्दःसूत्रम् 6.18)
अनंतरोदीरित लक्ष्मभाजौ, पादौ यदीयावुपजातयस्ताः।
(आचार्य केदारभट्ट कृत वृत्तरत्नाकर 3.30)

मुख्य उपजाति
इस वर्ग के अंतर्गत वे छन्द आते हैं जिनमें इंद्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के चरणों का सम्मिश्रण होता है। यह सम्मिश्रण कुल 14 प्रकार से हो सकता है। इस प्रकार मुख्य उपजाति के अंतर्गत कुल 14 छन्द आते हैं। सम्प्रति गीता में 12 प्रकार के मुख्य उपजाति है। इन छन्दों का नामकरण भी किया गया है। यदि इंद्रवज्रा को ‘इ’ और उपेन्द्रवज्रा को ‘उ’ से व्यक्त किया जाये तो मुख्य उपजाति के छन्दों के क्रमिक चरणों और उनके नामों को निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
(1) उइइइ (कीर्ति) अथवा उपेंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा
(2) इउइइ (वाणी) अथवा इंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा
(3) इइउइ (शाला) अथवा इंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा
(4) इइइउ (बाला) अथवा इंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा
(5) इउउउ (सिद्धि) अथवा इंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा
(6) उइउउ (ऋद्धि) अथवा उपेंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा
(7) उउइउ (प्रेमा) अथवा उपेंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा
(8) उउउइ (जाया) अथवा उपेंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा
(9) उउइइ (माला) अथवा उपेंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा- इंद्रवज्रा- इंद्रवज्रा
(10) इउउइ (माया) अथवा इंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा
(11) इइउउ (रामा) अथवा इंद्रवज्रा- इंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा
(12) उइउइ (हंसी) अथवा उपेंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा
(13) उइइउ (आर्द्रा) अथवा उपेंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा
(14) इउइउ (भद्रा) अथवा इंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा-इंद्रवज्रा-उपेंद्रवज्रा
इनमें से ऋद्धि और भद्रा छन्द में गीता का कोई श्लोक नहीं है।

उदाहरण :
गागाल गागाल लगाल गागा
यच्चाव/हासार्थ/मसत्कृ/तोऽसि^ (इंद्रवज्रा)
लगाल गागाल लगाल गागा
विहार/शय्यास/नभोज/नेषु^। (उपेन्द्रवज्रा)
लगाल गागाल लगाल गागा
एकोऽथ/वाप्यच्यु/त तत्स/मक्षं (इंद्रवज्रा)
गागाल गागाल लगाल गागा
तत्क्षाम/ये त्वाम/हमप्र/मेयम्। (इंद्रवज्रा)
(गीता 11.42)
इस छन्द के चार चरणों में क्रमशः इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा और इंद्रवज्रा है। इसलिए इसका सूत्र इउइइ है और इस छन्द का नाम ‘वाणी’ है। इसी प्रकार अन्य को समझा जा सकता है।

मिश्रित उपजाति
इस वर्ग के अंतर्गत वे छन्द आते हैं जिनमें इंद्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के अतिरिक्त अन्य छन्दों का भी सम्मिश्रण होता है। सामान्यतः अन्य छन्द भी 11 वर्णों का ही होता है किन्तु गीता में मिश्रित उपजाति के कुछ ऐसे भी छन्द पाये जाते हैं जिनमें वर्णों की संख्या 12 है। ऐसे अधिक वर्णों वाले मिश्रित उपजाति के छन्दों को भुरिक् कहते हैं। मिश्रित उपजाति के छन्दों की संख्या असीमित है। सम्प्रति गीता में 34 प्रकार के मिश्रित उपजाति हैं जिनमें से 4 भुरिक् हैं। इन छन्दों का कोई नामकरण उपलब्ध नहीं है, इसलिए पाठकों की सुविधा की दृष्टि से मिश्रित उपजाति के चारों चरणों में प्रयुक्त छन्दों के नामों को क्रमशः संयुक्त कर उस छन्द का नाम रख लिया गया है।

उदाहरण :
गागाल गालल गागाल गागा
कस्माच्च/ ते न न/मेरन्म/हात्मन् (ईहामृगी)
लगाल गागाल गागाल गागा
गरीय/से ब्रह्म/णोऽप्यादि/कर्त्रे। (यशोदा)
लगाल गागाल लगाल गागा
अनन्त/ देवेश/ जगन्नि/वास^ (उपेन्द्रवज्रा)
लगाल गालल गागाल गागा
त्वमक्ष/रं सद/सत्तत्प/रं यत्। (शारदा)
(गीता 11.37)
इस उदाहरण में छन्द के चारों चरण क्रमशः ईहामृगी, यशोदा, उपेन्द्रवज्रा और शारदा छन्द के हैं जिनकी वर्णिक मापनी दी हुई है। इसलिए मिश्रित उपजाति के इस छन्द का नाम है- ‘ईहामृगी-यशोदा-उपेन्द्रवज्रा-शारदा’।

मिश्रित उपजाति में प्रयुक्त छन्द
गीता के मिश्रित उपजाति में जिन छन्दों का प्रयोग हुआ है उनके नाम और मापनी निम्नलिखित प्रकार हैं-
(1) इंद्रवज्रा – गागाल गागाल लगाल गागा – 11 वर्ण
(2) उपेन्द्रवज्रा – लगाल गागाल लगाल गागा – 11 वर्ण
(3) प्राकारबंध – गागाल गागाल गागाल गागा – 11 वर्ण
(4) ईहामृगी – गागाल गालल गागाल गागा – 11 वर्ण
(5) इष्ट – गागाल गालल लगाल गागा – 11 वर्ण
(6) यशोदा – लगाल गागाल गागाल गागा – 11 वर्ण
(7) शारदा – लगाल गालल गागाल गागा – 11 वर्ण
(8) ईश – लगाल गालल लगाल गागा – 11 वर्ण
(9) शालिनी – गागागा गागाल गागाल गागा – 11 वर्ण
(10) वातोर्मि – गागागा गालल गागाल गागा – 11 वर्ण
(11) गुणांगी – गागागा गागाल लगाल गागा – 11 वर्ण
(12) चित्रा – गागागा गालगा लगाल गागा – 11 वर्ण
(13) विशाखा – लगागा गागाल गागाल गागा – 11 वर्ण
(14) ललिता – लगागा गालल गागाल गागा – 11 वर्ण
(15) राधा – लगागा गागाल लगागा लगागा – 12 वर्ण
(16) वंशस्थ – लगाल गागाल लगाल गालगा – 12 वर्ण
(17) गति – लगाल गालल ललगा लगागा – 12 वर्ण
(18) रति – गागाल गालल ललगा लगागा – 12 वर्ण
(19) गंगा – गागाल गालल लगागा लगागा – 12 वर्ण

सन्दर्भ : कृति ‘गीता के छन्द’, कृतिकार- आचार्य ओम नीरव 8299034545

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