बेटा ही चाहिए
“अरे ये क्या सुरभि इतने भरे कपड़ों की बाल्टी तुम अकेले ही उठा रही हो तुम्हारा तीसरा महीना चल रहा है, इतनी लापरवाही कैसे कर सकती हो तुम” सौरभ ने कपड़ों की बाल्टी छीनते हुए कहा।
“तुम हो न मेरा ख्याल रखने के लिए, और वैसे भी थोड़े से ही कपड़े थे तो मैंने सोचा छत पर सूखा देती हूं”
“मुझे कुछ नहीं सुनना। मेरे स्वप्निल को कुछ हो गया तो मुझसे बुरा कोई न होगा।”
“अच्छा जी, तो आपने नाम भी सोच लिया और अगर बिटिया हुई तो क्या नाम रखेंगे आप?”
“अरे नहीं बेटा ही होगा। मैं चाहता हूं मेरी पहली औलाद बेटा ही हो।भाईसाहब को भी पहला बेटा ही हुआ था। मैं परिवार में अपनी इज़्ज़त कम नहीं करवाना चाहता।”
सौरभ कहता हुआ कमरे में चला गया। सुरभि वहीं कुर्सी पर बैठ गई। सौरभ इतनी छोटी सोच रख सकता है ये उसने कभी नहीं सोचा था।
रात को खाना भी दोनो ने साथ बैठ कर खाया पर उनके बीच कोई बात न हुई। सुरभि सोच रही थी कि शायद सौरभ को अपनी ग़लती का एहसास होगा, वह माफ़ी मांग लेगा और वो माफ़ करके सारी बातें भूल जाएंगी। वो इंतजार ही करती रही और सौरभ उठ कर सोने चला गया।
अगले दिन ऑफ़िस के लिए तैयार होते हुए सौरभ ने कहा शाम को मैं जल्दी आ जाऊँगा तुम तैयार रहना डॉक्टर के पास चैकअप के लिए जाना है।
“पर डॉक्टर ने तो पंद्रह दिन बाद कि डेट दी है चेकअप के लिए तो फिर आज क्यों? अभी तो मेरी तबियत भी ठीक है।”
“जितना बोला है उतना करो वैसे भी हम डॉ. कविता के पास नहीं मेरे दोस्त के क्लीनिक जा रहे है तुम्हारा भ्रूण परीक्षण करवाने के लिए”
इतना सुनते ही सुरभि के रोंगटे खड़े हो गए वो एकदम चुप हो गई। एक पल तो उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ कि सौरभ ऐसा कर सकता है। खुद को सम्भालते हुए उसने कहा “इसकी क्या जरूरत सौरभ? तुम इतनी घटिया सोच कैसे रख सकते हो? क्या फर्क पड़ता है बेटा हो या बेटी। जो भी होगा हमें मंजूर होगा। आखिर है तो हमारा ही अंश। आज के टाइम में तो लड़का, लड़की सब बराबर है। लड़कियाँ भी लड़कों के समान घर का नाम रोशन करती है।”
“मुझे फर्क पड़ता है सुरभि, मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहता इसलिए जांच करवाना बहुत जरूरी है। लड़कियाँ तो सिर्फ बोझ होती है। बेटा होगा तो जीवन भर हमारे साथ रहेगा, बुढ़ापे में हमारी लाठी बनेगा। समाज में हमारी इज़्ज़त होगी जो एक बेटी कभी पूरी नहीं कर सकती।”
सुरभि समझ चुकी थी कि सौरभ को समझाना बेकार है इसलिए उसने साथ जाने से साफ मना कर दिया और अपना सामान पैक कर घर छोड़ने का फैसला कर लिया।
हमारा समाज कितना भी आगे क्यों न बड़ गया हो वो औरत को ही दबाने का प्रयास करता है। सुरभि के मां बाप के देहांत के बाद मामा जी जैसे तैसे उसकी शादी करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए थे। फिर ऐसी हालत में उसे कौन सहारा देगा। ऐसे में उसकी कॉलेज की सहेली राधा जो एक एन.जी.ओ. में काम करती थी ने उसे सहारा दिया। उसने एन.जी.ओ. में ही उसे नौकरी लगवा दी जहाँ उसे रहने को घर भी था। दिन बीतने लगे इसी बीच उसने सौरभ से कई बार सम्पर्क कर समझाने की कोशिश की लेकिन सौरभ ने उसकी एक न सुनी और उससे तलाक ले लिया। सुरभि करती भी तो क्या करती, अपनी कोख में पल रही नन्ही सी जान को दुनिया में लाने के लिए उसने सौरभ से तलाक ले लिया। कुछ महीनों बाद सुरभि ने एक बिटिया को जन्म दिया।
कई साल बीत गए। एक दिन सुरभि बगीचे में बैठ कर चाय पी रही थी कि तभी एक आदमी को अपनी ओर आता देखा। चेहरा भी जाना पहचाना लग रहा था। पास आने पर गौर से देखा दाढ़ी और बाल बहुत बढ़ गए थे झुर्रियों ने भी चेहरे की चमक को छीन लिया था वो सौरभ था।
“सुरभि पहचाना, मैं सौरभ”
“तुम इतने सालों बाद आज यहाँ”?
सुरभि इस तरह अचानक उसे देख कर हैरान थी। सौरभ से इस तरह दोबारा मुलाकात होगी उसने कभी नही सोचा था।
“मैं एन.जी.ओ. गया था वहाँ से पता चला कि अब तुम यहाँ रहती हो। मुझे माफ़ कर दो नेहा जब से मुझे ये एहसास हुआ कि मैने तुम्हारे साथ कितना गलत किया है तब से मैं पाश्चाताप की आग में जल रहा हूं। तुम्हारे बाद मैने दूसरी शादी कर ली बेटे के जन्म के कुछ सालों बाद पत्नी के देहांत हो गया। मैने अपना सबकुछ बेटे की परवरिश और लाड़ प्यार में लूटा दिया। शादी के बाद अब उसी बेटे को मैं बोझ लगने लगा हूँ इसलिये मुझे घर से निकाल दिया। ये सब मेरे कर्मों का ही फल है। मैं यहाँ सांत्वना पाने या मदद के लिए नही आया हूं बस मन मे एक बोझ था कि एक बार तुमसे मिलकर माफ़ी मांग लूँ। मैं गलत था कि बेटा होगा, बुढ़ापे का सहारा होगा, हमारे साथ रहेगा। तुम हमेशा से ही सही थी मैने ही अपनी हँसती खेलती जिंदगी को बर्बाद कर लिया। मेरी ग़लती माफ़ी के लायक तो नहीं पर हो सके तो मुझे माफ़ कर देना।”
सुरभि एकटक सौरभ को देख रही थी उसकी आँखों से आँसू बहे जा रहे थे। तभी एक बड़ी कार गेट पर आ कर रुकती है एक जवान लड़की बाहर निकल कर सुरभि के पास आती है।
“क्या हुआ मम्मी? आपकी आँखों में आँसू और ये अंकल कौन है” सुरभि के गले लगते हुए लड़की ने पूछा।
“ये मेरे पुराने मित्र है बेटा, बहुत दिनों बाद मिले है और ये है मेरी बेटी वसुधा। मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर और प्रोफेसर है” सुरभि ने सौरभ की और देखते हुए कहा।
सौरभ निःशब्द वसुधा को देखे जा रहा था और मन ही मन आशीर्वाद दे रहा था।
दोस्तो, लड़की और लड़के में फर्क न करें। दोनो को समान स्नेह और प्यार दे। बेटा, बेटी दोनो ही प्यार के बराबर अधिकारी है।