*खो गई मंजिल मुसाफिर*

खो गई मंजिल मुसाफिर
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खो गई है मंजिल मुसाफिर,
उलझी राहें सुलझी कहाँ हैं।
नींद में डूबी हर निगाहें,
सोया हुआ सारा जहां है।
सोच में चूकते जो अक्सर,
मुकम्मल मंजिल हुई कहाँ है।
तन भी हारा , धन भी हारा,
हारे मन से फीका जहाँ हैं।
बात बनती·बनती है बिगड़ी,
हालात भी संवरे कहाँ है।
मनसीरत मन बहुत है रोया,
खुशियों का जो टोटा रहा हैं।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)