नज़र

मिरी नज़र को धोखा हो रहा है ।
यकीं ख़ुद से ख़ुदाया खो रहा है ।।
जाने कौन…. शिद्दत की गर्मी में ।
मुझको यादों से…. भिगो रहा है ।।
जिनको समझा था… बंजर मैंने ।
ख़्वाब उन्हीं आँखों में बो रहा है ।।
मुझे अश्क भी नहीं लगते खारे ।
दर्द कोई चाशनी में डूबो रहा है ।।
न करना ज़मीर का सौदा वासिफ़ ।
दिल यही दुहाई देकर रो रहा है ।।
© डॉ. वासिफ़ काज़ी , इंदौर
© काज़ी की क़लम