कुण्डलिकशेष छंद

कुण्डलिकशेष छंद
जय गणेश हेरम्ब श्री, आदि देव गणनाथ।
हिय मेरे प्रभु आइए, रिद्धि सिद्धि के साथ।
साथ गजानन देव, योग क्षेम मंगल करण।
प्रभु पद पंकज माथ,गजकर्णक चिंता हरण।
बुद्धि विवेक अपार,लम्बोदर शुभकर निलय।
वक्र तुण्ड साकार, शेष न दूसर रीति जय।।
इक दोहा दो सोरठा, मात्रिक विषम विशेष।
अन्त्यक दोहा शव्द ही, प्रथम सोरठा शेष।
शेष पञ्च विस्तार, सम तुक युगल निराकरण।
आदि शब्द साकार, अन्त वही निश्चित वरण।
ओंकार छन्देश, सोहाशेष विधा कुलिक।
शारद कृपा विशेष, तभी सुलभ नव छंद इक।।
यह विषम मात्रिक छ्न्द है। यह दोहा+सोरठा के संयोग से बनता है। दोहे का अन्तिम शव्द ही सोरठे का प्रथम शव्द होगा तथा दोहे का प्रथम शव्द इस सम्पूर्ण छंद का अन्तिम शव्द होगा। सोरठे के विषम चरण समतुकान्त होते हैं इस छंद में सम चरण भी परस्पर समतुकांत होगें।
इस छन्द की प्रकृति कुण्डलियां विधान के अनुरूप है इसलिए इसका छंद का नाम ‘कुण्डलिकशेष’ छंद रखा गया है।सोरठा के प्रथम अक्षर से ‘सो’ तथा दोहा के अन्तिम अक्षर हा से ‘हा’ मिलाकर ‘सोहाशेष’ ऐसा उपनाम भी रखा गया है।
शेषमणि शर्मा ‘शेष’ प्रयागराज उत्तर प्रदेश।