जिंदगी से सामना
जिंदगी जब कभी किसी मरघट की तरह
एकदम बंजर और वीरान लगने लगती है
आस पास के लोगों को देख सुसुप्त मन में
फिर से एकबार नई आस जगने लगती है
किसे मालूम है कब अचानक किसी दिन ये
चुपचाप ऐसे ही कभी भी खत्म हो ना जाए
और देखते ही देखते सब कुछ गुमनामी में
हमेशा के लिए ही कहीं भी खो ना जाए
जब तक मचा रहता है अन्दर में कशमकश
तो कोई फिर कुछ कह भी नहीं सकता
वैसे भी जिंदगी से दो-चार हाथ किए बिना
ऐसे ही कोई कहीं जा भी नहीं सकता
कहीं मुझ पर तरस खाकर तो नहीं
ये जिंदगी मुझसे कुछ करवाने पर अड़ी है
और उसके इसी चक्रव्यूह में पड़ कर तो नहीं
मेरी सांसे अब भी इसी बहाने अटकी पड़ी है
लगता है अब कुछ ना कुछ इस दुनिया में
केवल अपने दम पर मुझे करना ही पड़ेगा
दुर्भाग्य का बादल अगर इससे छंट जाता है
तो अन्तिम दम तक कोई क्यों नहीं लड़ेगा