गोपी श्रीकृष्ण संवाद

गोपी श्रीकृष्ण संवाद
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श्रीकृष्ण एवं श्रीमती राधाजी संग
गोपियों का निर्मल प्रेम पूरे ब्रह्माण्ड को
दीप्तिमान कर रहा है ,
इनके प्रेम में संयोग जितना आनंदायक है ,
विरह उतनी ही पीड़ादायक होते हुए भी
निष्काम प्रेम की पराकाष्ठा प्रदर्शित करता है..
श्रीकृष्ण श्रीमती राधा संग गोपियों को
ब्रज में छोड़ कर मथुरा चले गए हैं,
गोपियों उनके वापस आने की
प्रतीक्षा में भावविभोर होती हुई गाती हैं_
वृषभानु लली की हे श्याम सखा,
तुम वृंदावन तो,अब आ जाओ..
मुरली की सुमधुर तान सुनाकर,
राधे को बहला जाओ…
निष्काम प्रेम की सिद्धस्वरुपा
तेरी राधा कब से रुठी हैं ,
विस्मित विभोर निस्पन्द बनी
वो कालिंदी तट पर बैठी हैं ..
हाथ में लेकर आओ बांसुरी
वेणुगीत सुना जाओ..
वृषभानु लली की हे श्याम सखा
तुम वृंदावन तो अब आ जाओ…
भगवान श्रीकृष्ण आदिपुरुष हैं । उनका सौंदर्य
सदैव नवीन बना रहता है उनके सौंदर्य का वर्णन
करती हुई गोपियां कहती हैं _
कान में पहने कनेर पुष्प,
और गले में हो वैजयंतीमाला
माथे पर हो मोर मकुट,
और कमलनयन निरखत बाला..
श्याम सलोना मोहक मुखमंडल,
टपकत रस मरकत वाला,
तलफत फिरत,वियोग उर राधे,
कहत माधव मदन मूरली वाला..
ब्रज चौरासी सुधि कब लोगे,
मधुसूदन अब तुम आ जाओ..
वृषभानु लली की हे श्याम सखा,
तुम वृंदावन तो आ जाओ…
वृषभानु लली की हे श्याम सखा
तुम वृंदावन तो अब आ जाओ…
गोपियां भाव विह्वल होकर,
बडे ही अनुग्रहपूर्वक श्रीकृष्ण
से आगे कहती है_
सुनो कृष्ण, तुम संदेशा बृज का,
तुम हमसे क्यों रुठे हो
मन तेरा मथुरा में रम जो गया है,
कपटी भ्रमर सा झूठे हो..
कर्मयोगी का मुकुट पहनकर,
अपने मन का ही तुम करते हो
तुम क्या जानो प्रेम वियोग को,
श्यामसुंदर तुम झूठे हो..
रसिकण जीवन प्राण हमारो,
सौभाग्य चरणरज तो दे जाओ_
लौट कर आओ,बनो ना निष्ठुर तुम,
तुम राधे को बहला जाओ..
अब वृन्दावन तो आ जाओ__
वृषभानु लली की हे श्याम सखा.
मनमोहन तू आ जाओ
मुरली की सुमधुर तान सुनाकर
तुम राधे को बहला जाओ…
गोपियों उनके वापस आने की प्रतीक्षा
करती हैं लेकिन कृष्ण स्वयं न आकर
उद्धव को ब्रज भेज देते हैं,
ताकि वह गोपियों को
निर्गुण ब्रह्म की दीक्षा दे सकें..
जिससे गोपियाँ बहुत आहत
होती हुई फिर श्रीकृष्ण से कहती हैं _
उद्धव को भेजा था तूने__
वो राधे से कहते हैं
माधव तुमसे दूर नहीं है,
कण-कण में वो बसते हैं..
कौन पिता और को है माता,
कौन सखा और कौन बंधू
ज्ञानचक्षू से देखो ब्रह्म को,
सारे खेल वो रचते हैं..
वो तो सबके अंदर बसते,
पर तुमको क्यों नहीं दिखते हैं_
छोड़ो कान्हा मोहिनी मूरत,
ज्ञान वैराग्य का ले जाओ..
आया हूँ मैं ज्ञान सिखाने,
ज्ञान अधरामृत पी जाओ
बनो ना मतवारी, ओ री राधे,
निर्गुण ब्रह्म तुम पा जाओ..
वृषभानु लली की हे श्याम सखा.
तुम वृंदावन तो अब आ जाओ…
तब गोपियाँ सगुन (कृष्ण) को
छोड़ने से मना करती है और
उसके पक्ष में तर्क प्रस्तुत
करती हुई कहती है_
गोपियां तब कहती है,_
सुन रे उधो_
मुझको काहे ज्ञान सिखाता,
कान्हा को तू निर्गुण ब्रह्म कहता है
प्रगट रुप जब वो श्याम सलोना,
वो तुझको नहीं क्यों दिखता है..
निर्गुण हो जाए यदि मोरे श्याम तो,
मुख बिनु माखन कैसे खायेंगे
पांव बिनु कैसे वन को जायें,
और कैसे गैया चरायेंगे..
कान बिना किछु सुन नहीं धुन तो,
कैसे वेणु बजाएंगे
हाथ नहीं हो, वो बिना हस्त के,
गोवर्धन कैसे उठायेंगे..
प्रेम का मर्म न, तुम मुझे बताओ
वापस तुम मथुरा को जाओ..
वृन्दावन में विरहन बनकर,
सारे दुख मैं सह लूंगी..
नाम उन्हीं का जपते-जपते
वृंदावन मैं रह लूंगी..
वृषभानु लली की हे श्याम सखा.
तुम वृंदावन तो अब आ जाओ…
फिर आगे गोपियां कहती है _
गोकुल का नंदलाल है कान्हा,
उर में हमने बसा लिया है
याद कभी न उनके रोती,
धड़कन में ही समा लिया है..
वचन दिया जो उनसे मैंने
प्रतिदिन प्रतिपल मैं निभाती हूँ ,
परम प्रेम प्रकृति परखने,
पुलकित वन को आ जाती हूँ..
मत्त मदन पंक नहिं है उर में,
श्याम मूरत कण कण पाती हूँ,
लता पता कुंज गलियन संग,
सान्निध्य श्याम स्नेह को गाती हूँ..
बस प्यासी हूँ मुरली धुन उनका,
उधो, उन्हें संग में ले आओ..
खारे मीठे जल का भेद न बतलाओ,
कल्प प्रसून वेणुनाद सुनवा जावो..
ज्ञानयोग से तो वियोग भला है,
मनमोहन को बतला जाओ..
वृषभानु लली की हे श्याम सखा.
मनमोहन तू आ जाओ
मुरली की सुमधुर तान सुनाकर
तुम राधे को बहला जाओ…
कहते हैं _
ब्रज मे बड़े भागी को जन्म मिलता है,
ब्रज की धुली मे भगवान और भक्त की
चरणों की धुली से मुक्ति मिलती है..
महारास का मतलब है,
भक्त और भगवान का मिलन,
इंद्रियों का अर्थ ‘गोपी’ भी होता है..
इस संदर्भ में आगे
गोपियां कहती हैं,देखो उद्धव _
महारास की वो बेला कितनी
करीब आ रही है _
और ये वृंदावन की प्रकृति
किस तरह सोलह श्रृंगार कर
स्थिरचित्त टकटकी लगाए
मनमोहन की आश देख रही है__
जल-थल-नभ संग सजा कुसुमित वन,
शीतल मंद सुगंधित उपवन
झूलत तरु खग चहकत यमुना संग,
वनमयूर नृत्य मनमोहक चितवन..
आयो शरदपूर्णिमा की वेला रौनक,
हर्षित हुआ पूरा निधिवन है मोहक,
पायल खनकाती कहती है राधा,
गोपी,भाव बिनु है ये जीवन आधा..
योगमाया का आश्रय फिर से लेकर
महारास वही रचा जाओ..
आओ न तुम, हे योगेश्वर !
महारास वही रचा जाओ..
वृषभानु लली की हे श्याम सखा.
मनमोहन तू आ जाओ
मुरली की सुमधुर तान सुनाकर
तुम राधे को बहला जाओ…
मौलिक और स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १९/०१/२०२५
माघ ,कृष्ण पक्ष, पंचमी तिथि, रविवार
विक्रम संवत २०८१
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