*प्रेम का दर्शनशास्त्र (Philosophy of Love)*
प्रसिद्ध योगी एवं दार्शनिक ओशो राजनीश ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘शिक्षा में क्रांति’ में कहा है – ”हम एक दूसरे को साधन बना रहे हैं। मनुष्य के जीवन में इससे बड़ी दुःख की बात नहीं कि किसी मनुष्य को साधन की तरह व्यवहार करना पड़े । क्योंकि हम जिसे साधन बनाते हैं वह वस्तु हो गया । एक-एक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं । और मैं किसी व्यक्ति को साधन न बनाऊं यह तभी हो सकता है जब मेरे भीतर प्रेम का उदय हो जाए“ ।
प्रेम व प्यार की रट सब लगाते रहते हैं । माता-पिता, भाई-बहन, चाचा, ताऊ, सगे संबंधी तथा पति-पत्नी सब कोई यह कहता है कि वह प्रेम करता है । लेकिन वास्तव में यह प्रेम नहीं है । इसे हम आसक्ति, वासना, लगाव या संबंध आदि कुछ भी कह सकते हैं । लेकिन यह प्रेम तो कतई नहीं हो सकता । प्रेम तो मन की एक अवस्था है । साधारणतः हम ऐसा सोचते हैं कि मैं फलां व्यक्ति से प्रेम करता हूं ।
यह बात ही गलत है । ऐसा तो हो सकता है कि मैं प्रेमपूर्ण हूं और यदि मैं प्रेमपूर्ण हूं तो प्रेमपूर्ण ही रहूंगा । चाहे व्यक्ति कोई भी बदल जाए । अगर मैं कमरे में अकेला हूं तो भी प्रेमपूर्ण ही रहूंगा । प्रेमपूर्ण होना मेरे मन की अवस्था की बात है । साधारण तौर पर तो यही समझा जाता है और जिससे वह प्रेम करने की बात करता है वह उसकी जरूरत हो सकती है । उसके शरीर की जीवन की व्यवस्था की कोई जरूरत उससे पूरी हो रही है । वह जरूर पूरी होना किसी भी तल पर हो सकता है । जरूरत धन की या सुरक्षा की हो सकती हैं । यह प्रेम के नाम पर शोषण है । जिन भी वस्तुओं से हमारी जरूरतें पूरी हो रही हैं उनसे हमारा एक लगाव या संबंध हो जाता है । यह आसक्ति है, प्रेम नहीं ।
आसक्ति में हम किसी को भी अपना साधन बनाते हैं लेकिन प्रेम में साधन बन जाते हैं । प्रेम दान है लेकिन आसक्ति एक मांग है । प्रेम सदैव देना चाहता है लेकिन आसक्ति सदैव लेना चाहती है । प्रेम कोई सौदा नहीं है लेकिन आसक्ति में शर्त भी होती है व सौदा भी । प्रेमपूर्ण व्यक्ति हर उस व्यक्ति से प्रेम ही करेगा जो उसके निकट आएगा । प्रेम तो फूल की सुगंध की तरह है । फूल की सुगंध दुश्मन व दोस्त दोनों को बिना भेदभाव के मिलती है । फूल कोई शर्त नहीं रखता कि यह शर्त जो पूरी करेगा उसी को मैं अपनी सुगंध दूंगा, बाकी को नहीं। प्रेमपूर्ण व्यक्ति प्रेम ही कर सकता है । प्रेम मुक्ति है लेकिन आसक्ति या वासना या संबंध बंधन है ।
आसक्ति या संबंध प्रेम नहीं है अपितु प्रेम के नाम पर धोखा है। जो आदमी अभी ध्यान के द्वारा आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ हैे वह प्रेमपूर्ण हो ही नहीं सकता । जो आदमी घृणा, क्रोध, ईष्र्या व दुःख में जीता है वह प्रेम क्या खाक करेगा । प्रेम करने हेतु प्रेम का भीतर होना तो जरूरी है । भीतर प्रेम नहीं हैं तो किया कैसे जा सकता है । हर कोई किसी से प्रेम की मांग कर रहा है लेकिन प्रेम मांगा नहीं जा सकता, हां, यह मिल सकता है । हमारे जीवन में दुःख है तो हम अन्य को दुःख ही दे सकते हैं । इसलिए ज़्यादातर हम शत्रु व मित्र दोनों को ही दुःख ही देते हैं । आनंद हमारे पास है ही नहीं तो दे कहां से? प्रेम चित्त की एक अवस्था है, संबंध नहीं । हमने आज तक संबंध व आसक्ति को ही प्रेम माना है ।
प्रेम की यात्रा पर जो भी निकलता है उसकी यात्रा प्रेमी या प्रेमिका पर पूरी नहीं होती है । अपितु वह तो स्वयं की ही खोज करेगा – स्वयं के भीतर । अपूर्णता दुःख है और अपूर्णता में हमें दूसरे से बंधना पड़ता है क्योंकि दूसरा शायद हमें पूरा कर सके इसी आशा में हम बंधते हैं लेकिन कोई खोज को पूरा नहीं सकता ।
किसी को प्रेम पाना है तो उसे पहले स्वयं को ही पाना होगा । आनंद जहां भी होता है फिर प्रेम तो उसे पहले स्वयं को ही पाना होगा । आनंद जहां भी घटता है, फिर प्रेम तो उसकी परिधिमात्र है ।
जो भी प्रेम पाने व देने की बातें करते हैं उनसे सावधान हो जाईए । ऐसे आदमी ढोंगी किस्म के या शोषक प्रवृत्ति के होंगे । प्रेम की सुगंध उनमें हो ही नहीं सकती । आसक्ति, संबंध, वासना व जरूरत को प्रेम न कहें अपितु अपने स्वयं को जाने फिर सर्व के प्रति करुणा का जन्म होगा । यही प्रेम है ।
आचार्य शीलक राम