ऊर्मि
///ऊर्मि///
उर्मि हो तुम सागर फलक पर,
तुममें आरोह और अवरोह देखा।
सुनती रही तुम ही से प्रेम गाथा,
तुम्हारा आवेगमयी संसार देखा।।
मिटती हुई तुम तरल विरल में,
कितने अमिट-मिटते संसार देखा।
तुमने सुनाई मुझे जो प्रेम गाथा,
मैंने तुम्हें संसार की पतवार देखा।।
लिखती रही मैं गाथा तुम्हारी,
तुझमें आलोक-तमस संसार देखा।
तुममें सहज ही उत्स प्राण का,
वेदना लेकर प्रत्युत विस्तार देखा।।
देखी नहीं पर कोई मुग्धता,
मिलन आरोह का अवगाह देखा।
देखा नहीं वह मनोरथ गांभीर्य ,
तुझमें चंचलता ही अपार देखा।।
कह न सकी तू अपनी कहानी,
इस व्यथित हृदय से संसार से।
आलोक पाया सदा किंतु तुझमें,
कभी न प्रातः का अनुराग देखा।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)