पुस्तक समीक्षा
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम: मुट्ठी भर वातास (दोहा संग्रह)
कवि का नाम: वसंत जमशेदपुरी (मूल नाम मामचंद अग्रवाल), पता : सीमा वस्त्रालय, राजा मार्केट, मानगो बाजार, जमशेदपुर तथा राम दरबार गुरुद्वारा रोड/ मुस्लिम बस्ती, मानगो, जमशेदपुर, झारखंड मोबाइल 9334 805 484
मेल आईडी mavasant1960@gmail.com
प्रकाशक: प्रलेक प्रकाशन
702, जे-50, ग्लोबल सिटी, विरार (वेस्ट), मुंबई 401303, महाराष्ट्र
प्रथम संस्करण (सजिल्द): 2023
मूल्य: ₹395
समीक्षक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल/व्हाट्सएप 9997615451
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वसंत जमशेदपुरी की दोहा-सतसई
दोहा हिंदी काव्य की सैकड़ों वर्षों से चली आ रही अत्यंत लोकप्रिय विधा है। मात्र दो पंक्तियों में संपूर्ण कथ्य प्रस्तुत करने की कला में दोहे का कवि समर्थ होता है। दोहे की शिल्पगत संरचना में हिंदी का जो संगीत बिखरता है, उसकी तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती।
वसंत जमशेदपुरी की दोहों पर अद्भुत पकड़ है। दोहे की रचना करना उन्हें सिद्धहस्त है। मुट्ठी भर वातास में दोहों का शिल्पगत सौंदर्य किसी भी पाठक का मन मोह लेने में समर्थ है। एक के बाद एक दोहे अपनी बुनावट और कसावट में हर प्रकार से संपूर्ण हैं । कवि की वैचारिक संपन्नता इन दोहों में एक अलग ही चमक पैदा कर रही है। सुरुचिपूर्ण जीवन दृष्टि से रचे-बसे यह दोहे मनुष्य की आत्मा को झंकृत करने वाले हैं।
इनमें शिष्टाचार है। मर्यादा है। भारतीयता का अभिमान है। सर्वधर्म समभाव का आग्रह है। संक्षेप में कहें तो यह दोहे मनुष्य को मनुष्य बनाने की भावना से ओतप्रोत हैं।
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मर्यादित श्रृंगार
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श्रृंगार को मर्यादा में बॉंधना कठिन होता है। यह कार्य वसंत जमशेदपुरी की कलम का कमाल ही कहा जा सकता है। दोहा संख्या 394 और 693 इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं । इनमें सूक्ष्म रूप से श्रृंगार रस की प्रस्तुति हुई है।
मिली पुरानी डायरी, जमी हुई थी धूल। प्यार भरे कुछ शब्द थे, और महकता फूल।। (394)
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पारिवारिकता
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दो प्रकार के चिंतन साहित्य में देखे जाते हैं। एक वे जो परिवार को बंधन मानकर उससे मुक्त होना चाहते हैं। दूसरे वे जो मुक्ति की अवधारणा में परिवार के बंधन के महत्व को समझते हैं।
वसंत जमशेदपुरी के दोहों में परिवार को साधने का दृष्टिकोण है। यह दोहे एक अच्छे परिवार की रचना को प्रोत्साहित करने वाले हैं। इनमें माता-पिता, पत्नी, मित्र और बेटी के प्रति आस्था के स्वर देखे जा सकते हैं। परिवार में सभी घटकों के प्रति यह दोहे आदर को बढ़ाते हैं। मॉं के प्रति दोहा संख्या 363, 397 और 536 विशेष उल्लेखनीय हैं । बेटी के संबंध में दोहा संख्या 452, 453 तथा 454 मार्मिक बन पड़े हैं । माता-पिता के प्रति सम्मान दोहा संख्या 59 में देखा जा सकता है। भगवान कृष्ण का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए मित्र के प्रति दोहा संख्या 404 बहुत अनमोल है। परिवार के कुछ अच्छे चित्र भी इन दोहों में से छांटकर प्रस्तुत किए जा सकते हैं। उदाहरणार्थ दोहा संख्या 160
आइए कुछ दोहों का आनंद लें:
जीवन में खुशियॉं भरे, कान्हा जैसा मित्र। ज्यों कागज के फूल को, करे सुगंधित इत्र (404)
माता बोली पुत्र से, वृद्धाश्रम के द्वार। जा बेटा तेरा सदा, सुखी रहे संसार।। (536)
जीवन में बुरी आदतों को छुड़वाने के लिए प्रेरित करने का कार्य भी इन दोहों ने किया है। शराब की बुराई के प्रति यह दोहे विनम्रता के साथ लोगों को सचेत कर रहे हैं:
दारू ने बिकवा दिए, कितनों के घर-बार। मत कोई इसको पिए, विनती बारंबार।। (दोहा संख्या 144)
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वसंत
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विविध ऋतुओं का सुंदर वर्णन दोहा संग्रह में देखने को मिलता है। वसंत ऋतु तो कवि को इतनी भाई कि उपनाम इसी के आधार पर रख लिया। वसंत ऋतु में गुलाल, भांग और धूप के चित्रण से मौसम की मादकता का रंग खूब निखर कर आया है:
जब वसंत आया सखी, धरती हुई निहाल। धूप भॉंग-सी हो गई, धरती हुई गुलाल (दोहा संख्या 463)
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आशा का संचार
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इतिहास गवाह है कि कविता की पंक्तियों ने डूबते हुए को सहारा दिया है तथा विपरीत परिस्थितियों में उनमें आशा बॅंधाई है। ‘मुट्ठी भर वातास’ भी इस दृष्टि से कम उपयोगी नहीं है। इसमें प्रतिकूल परिस्थितियों में धैर्य रखने की प्रेरणा मिलती है। एक दोहा देखिए:
मन थोड़ा धीरज धरो, बीतेगी यह रात। सूरज लाएगा अभी, किरणों की सौगात।। (दोहा संख्या 257)
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एकता-मूलक दृष्टि
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दोहा संख्या 78 में छोटे-छोटे दीपों की मिली-जुली कोशिश से ही एकता का संदेश दिया गया है। सर्वधर्म समभाव दोहा संख्या 173 और 293 में मुखरित है। देशभक्ति की भावना यों तो यत्र तत्र सर्वत्र है, तो भी दोहा संख्या 231 तथा 423 विशेष हैं ।उदाहरणार्थ एक दोहा देखिए:
छोटे-छोटे दीप से, आलोकित संसार। मिलकर यदि कोशिश करो, मेटोगे ॲंधियार।। (दोहा संख्या 78)
अलंकार का प्रयोग
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अलंकारों से काव्य की शोभा द्विगुणित हो जाती है। ‘मुट्ठी भर वातास’ में भी अलंकारों की सुंदर छटा देखने में आती है। एक दोहा प्रस्तुत है :
सोना स्वामी से कहे, तू बस पहरेदार। सोना तेरे भाग्य में, नहीं लिखा है यार।। (दोहा 256)
उपरोक्त दोहे में सोना का एक अर्थ स्वर्ण है तथा दूसरा अर्थ निद्रा है। कवि ने अलंकार का प्रयोग करते हुए यह कहा है कि जिसके पास स्वर्ण का भंडार हो जाता है, फिर उसकी नींद गायब हो जाती है।
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आक्रोश का स्वर
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इन दोहों में स्थान-स्थान पर देश-समाज की व्यवस्था के प्रति कवि का आक्रोश प्रकट हुआ है। कवि आदर्श समाज की रचना चाहता है लेकिन जब उसे पैसे का महत्व ही सब स्थान पर दिखाई दे रहा है, तब वह निराश हो जाता है। इसी तरह कवि लोकतंत्र का समर्थक है, लेकिन लोकतंत्र के नाम पर जब नेता का पुत्र ही नेता बन जाता है तब इस बात का आकलन कवि की वाणी में मुखरित होता है। तात्पर्य यह है कि जो दिख रहा है, उसमें सुधार की आवश्यकता कवि का संवेदनशील मन महसूस कर रहा है। यही इन दोहों की विशेषता है।
राजा जी का पुत्र ज्यों, होता राजकुमार। लोकतंत्र में भी वही, देख रहे व्यवहार।। (दोहा 429)
रुपया-पैसा ही हुआ, इस युग का भगवान। पैसों से ही हो रही, मानव की पहचान।। (दोहा 443)
कुल मिलाकर जहॉं एक ओर इन दोहों में प्रकृति-चित्रण और श्रृंगार का माधुर्य है, वहीं दूसरी ओर यह समाज में विकृतियों को संवेदनशील दृष्टि से देखने में भी समर्थ हैं। ‘मुट्ठी भर वातास’ के दोहे अपने समय की जॉंच-पड़ताल करते हैं। यह दोहे एक अच्छे समाज की रचना में सहायक हो सकेंगे, ऐसा विश्वास है।