समाज की कड़वी सच्चाई
समाज की कड़वी सच्चाई
पैसा और सफलता जब बोलने लगते हैं,
औकात भी हैसियत में ढलने लगते हैं।
सच्चाई की चादर फटी रह जाती है,
झूठ के परचम ऊँचे उड़ने लगते हैं।
रिश्ते, जज़्बात सब बिकने लगते हैं,
दौलत के सिक्के जब खनकने लगते हैं।
इंसानियत का मोल कहाँ रह जाता है,
नाम, रुतबा, शोहरत चमकने लगते हैं।
ग़रीब की आहें दबा दी जाती हैं,
अमीरों के जश्न सजा दिए जाते हैं।
जो सच कहे, उसे नज़रअंदाज़ करते हैं,
झूठे को सर-आँखों पर बिठाने लगते हैं।
समाज की सूरत यूँ बदलती जाती है,
सच की जगह झूठ राज करने लगते हैं।
पैसा और सफलता की कड़वी हकीकत है,
इंसानियत की कीमत घटने लगती है।