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9 Jul 2024 · 10 min read

*श्री जगन्नाथ रस कथा*

श्री जगन्नाथ रस कथा

रामपुर 9 जुलाई 2024
श्री राधाकृष्ण जी महाराज के श्री मुख से श्री जगन्नाथ जी की रस कथा के श्रवण का सौभाग्य प्राप्त हुआ। रामलीला मैदान स्थित उत्सव पैलेस में महाराज जी ने सुसज्जित पंडाल में ‘जय जय श्री राधे’ तथा ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र के जप के साथ तुलसी के पौधे को भी प्रणाम करते हुए कथा आरंभ की।

मीराबाई का उदाहरण सबसे पहले दिया और कहा कि गुरु केवल कान में मंत्र नहीं फूॅंकता, वह कोई ऐसी वस्तु भी दे जाता है जो जीवन की साधना के पथ पर अत्यंत बहुमूल्य सिद्ध होती है। गुरु रविदास ने मीराबाई को ‘इकतारा’ दिया और मीराबाई ने उसे इकतारे की धुन पर भगवान को समर्पित भक्ति रचनाओं का सृजन करके एक इतिहास रच दिया।
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जगन्नाथ मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा
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जगन्नाथ पुरी में भगवान जगन्नाथ के मंदिर का विवरण महाराज श्री के कथा-क्रम के केंद्र में रहा। आपने बताया कि जब भव्य मंदिर का निर्माण पूर्ण हो गया तो राजा ने भगवान जगन्नाथ की प्राण प्रतिष्ठा के लिए किसी सुयोग्य व्यक्ति का चयन करने का निश्चय किया। चयन किसका होना चाहिए?- इस प्रश्न पर आचार्य श्री ने कहा कि विद्वान व्यक्ति का चयन ही उचित रहता है, जो सब प्रकार से आदर का पात्र हो। विधि-विधान से प्राण प्रतिष्ठा के नियमों का पालन करें, ऐसे महान आचार्य के हाथ से प्राण प्रतिष्ठा उचित है।
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मूल तत्व पर ध्यान देना आवश्यक
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आपने सुस्पष्ट वक्तव्य रखते हुए कहा कि आजकल तमाम तामझाम और दिखावे की प्रवृत्ति के कारण कार्यक्रमों का मूल तत्व विस्मृत कर दिया जाता है। बाकी सब तो बहुत भव्य रीति से संपन्न हो जाता है लेकिन कुछ असली काम उपेक्षित रह जाते हैं। व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर आपने बताया कि एक बार मैं एक स्थान पर कथा कहने गया। आयोजन तो भव्य था लेकिन हमारे कहने के बाद भी माइक की व्यवस्था अच्छी नहीं थी। परिणामत: श्रोताओं तक न हमारी बात पहुंच पाई, न वह उसका आनंद ले सके। केवल इतना ही नहीं, टीवी पर भी एक चैनल पर उसका प्रसारण होना था लेकिन माइक की खराबी के कारण उन्होंने भी कार्यक्रम को गुणवत्तापूर्ण नहीं माना और उसका प्रसारण नहीं हो सका। तात्पर्य यह है कि मूल तत्व की कभी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। पूरा ध्यान उसकी सफलता पर ही लगाना चाहिए।
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सेवा-कार्य में विवाद नहीं होता
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पुरी के महाराजा ने जगन्नाथ जी के मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए भगवान ब्रह्मा जी को आमंत्रित करने का निश्चय किया और पूरा आदर व्यक्त करते हुए वह ब्रह्मा जी के पास देवलोक गए। कुछ समय उन्हें ब्रह्मा जी की प्रतीक्षा करनी पड़ी लेकिन अनुमति लेकर ही वापस लौटे। जब अपने राज्य में वापस आए तो दुनिया बदल चुकी थी। अनेक वर्ष बीतने के कारण नए राजा को सत्ता प्राप्त हो चुकी थी लेकिन फिर भी प्राण प्रतिष्ठा ब्रह्मा जी के हाथों से ही हुई।
इस कार्य में आपने बताया कि नए राजा ने कोई विवाद नहीं किया क्योंकि जहॉं सेवा भाव होता है वहां विवाद नहीं होता। जहां केंद्र में सत्ता और अर्थ होता है, वहीं पर विवाद फलता-फूलता है।
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लक्ष्मी जी ने रसोई सॅंभाली
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प्राण प्रतिष्ठित भगवान जगन्नाथ के मंदिर में पॉंच-छह सौ के करीब चूल्हों की रसोई का कार्यक्रम बना। इसकी जिम्मेदारी स्वयं लक्ष्मी जी ने संभाली। कारण क्या है?- इस प्रश्न पर विचार करते हुए महाराज श्री ने बताया कि कितनी भी धनवान परिवार की महिला क्यों न हो, लेकिन रसोई का संचालन उसके हाथ में ही उचित रहता है। पूरे मनोयोग से जब भोजन बनता है तभी उसमें ऊर्जा विद्यमान रहती है। ‘जैसा मन वैसा ही अन्न’ -यह कहावत चरितार्थ होती ही है।

भोजन में एक विशेषता यह होती है कि जब ठाकुर जी को भोजन कराया जाता है तो पर्दा डाल दिया जाता है। इसका क्या कारण है?- उत्तर देते हुए महाराज श्री ने बताया कि दरअसल ठाकुर जी को लक्ष्मी जी भोजन खिलाती हैं । वर्णन करते हुए महाराज श्री ने बताया कि भक्त महसूस करें कि लक्ष्मी जी ने आपके दिए हुए भोजन का एक कौर भगवान के मुख तक ले जाकर उन्हें खिलाने का प्रयत्न किया तो उसी क्षण भगवान ने उस कौर को प्रेम पूर्वक लक्ष्मी जी को खिला दिया। इस प्रकार परस्पर एक साथ बैठकर जो भोजन किया जाता है उसमें बगैर कोई विघ्न डाले हुए तथा किसी अन्य की उपस्थिति न होने देते हुए हमें मन ही मन उस भाव की कल्पना करनी चाहिए और जो भोजन पर्दा हटाने के बाद हमें प्राप्त हो; उसे भगवान का प्रसाद मानकर ग्रहण करना चाहिए। महसूस करना चाहिए कि इन पर भगवान के चिन्ह अंकित हो गए हैं।
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एक साथ भोजन से प्रेम बढ़ता है
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महाराज श्री ने कथा के बीच-बीच में उच्च कोटि के बौद्धिक प्रसंगों को भी जनता को सुना कर उनके भीतर चेतना पैदा करने का प्रयास किया। आपने बताया कि परिवार में अगर सब लोग एक साथ बैठकर भोजन ही कर लें तो उस परिवार में कभी द्वेष और कलह पैदा नहीं हो सकती। अगर लक्ष्मी जी किसी परिवार से बाहर चले जाने का निर्णय भी ले लें, तो अगर परिवार अपने प्रेम को बनाए रखते हुए एक साथ भोजन करने की परंपरा का परित्याग नहीं करता तो विवश होकर लक्ष्मी जी को उस घर में रहना पड़ेगा।
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किसी कार्य को बोझ मत मानो
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एक बड़ी अच्छी बात आपने यह बताई कि जब हम किसी कार्य को उत्सव के रूप में करते हैं तो हमें थकान नहीं होती लेकिन अगर किसी कार्य को हम अपनी नौकरी या वेतन के रूप में करने की आदत डालेंगे तो हमें उस कार्य में थकान होनी शुरू हो जाएगी। भगवान की भक्ति निष्काम भाव से करने में ही जीवन का आनंद है।
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भजनों का पुट
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कथा के बीच-बीच में कुछ भजनों का समावेश करके महाराज श्री कथा की रसमयता को और भी मधुर बना देते हैं। एक भजन का सस्वरर गायन आपने किया:-

मैं छप्पन भोग बनाऊंगी/ और अपने प्रभु को जिमाऊंगी/ मैं मीठे बोल सुनाऊंगी/ जब राम मेरे घर आएंगे/ राहों में फूल बिछाऊंगी
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हास्य का पुट
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बीच-बीच में हास्य का पुट महाराज श्री का चलता रहता है। एक चुटकुला भी सुनाया। शादी के बाद नई-नई बहू से उसकी सास ने पूछा- “रसोई में कुछ आता है?”
बहू ने कहा- “रसोई में मुझे तो केवल चक्कर आते हैं।”
हास्य का पुट वातावरण को बोझिल नहीं होने देता।
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कर्माबाई की रसोई का उदाहरण
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कथा के बीच-बीच में कुछ बौद्धिक प्रदान करना आपकी विशेषता है। आपने रसोई को अन्नपूर्णा माता का मंदिर कहा। स्वाद को ईश्वर का प्रतीक माना और कहा कि जब रसोई में भोजन बनता है तो भोजन के स्वाद में ईश्वर प्रकट होते हैं। अगर कोई व्यक्ति रसोई में ही पवित्रता का संरक्षण और संवर्धन करने का संकल्प ले ले, तो फिर उसे किसी अन्य जप-तप की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। वह केवल रसोई के संचालन से ही अपना और पूरे घर का कल्याण कर देगा।
आपने मारवाड़ की एक अनपढ़ महिला ‘कर्माबाई’ की पवित्र रसोई का उदाहरण दिया। कर्माबाई प्रतिदिन स्नान करके साफ सफाई करने के बाद पूरी पवित्रता के साथ रसोई में प्रवेश करती थीं । रसोई की उनकी पवित्रता और निष्ठा का परिणाम यह निकला कि स्वयं ठाकुर जी पधारते थे और कहते थे कि कर्मा जल्दी कर। देर मत कर मॉं। मुझे बहुत भूख लगी है।
इस प्रकार केवल रसोई के माध्यम से हम परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं।
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रसोई की पवित्रता आवश्यक
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महाराज श्री ने यह भी बताया कि कि जिस वस्तु का भोग हम ठाकुर जी को नहीं लगा सकते हैं वह वस्तु रसोई में नहीं बननी चाहिए। जो वस्तु खाने के योग्य नहीं है, अभक्ष्य है -उसका रसोई में क्या काम? केवल रसोई ही नहीं, उसका हमारे जीवन में भी कोई स्थान नहीं होना चाहिए। हमारा खान-पान शुद्ध रहेगा, इसी में हमारा कल्याण है।
पहले के जमाने में आपने बताया कि रसोई की प्रत्येक वस्तु से बीमारियां दूर की जाती थीं । हर रोग का इलाज रसोई में मौजूद होता था। लेकिन आज स्थिति बदल गई है। रोगों का मूल हमारी विकृत रसोई में मौजूद है।
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हनुमान जी की प्रशंसा
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आपने बताया कि जगन्नाथ पुरी का भव्य मंदिर समुद्र के निकट होते हुए भी कभी भी समुद्र मंदिर तक आने का साहस नहीं करता। समुद्र की पुत्री लक्ष्मी जी हैं। प्रारंभ में समुद्र को अपनी पुत्री को रसोई बनाते देखकर बड़ा अजीब लगता था लेकिन लक्ष्मी जी ने अपने पिता समुद्र को यह कहकर शांत कर दिया था कि उन्हें रसोई बनाने में कोई भी कष्ट नहीं होता क्योंकि वह भगवान के लिए रसोई बनाती हैं और इसमें उन्हें अत्यंत प्रसन्नता होती है। केवल इतना ही नहीं उन्होंने हनुमान जी को भी इस कार्य के लिए तैनात कर दिया था कि वह समुद्र को जगन्नाथ मंदिर तक आने से रोकें।
कथा-प्रसंग के अवसर के अनुरूप हनुमान जी की प्रशंसा में एक भजन उपस्थित समुदाय को सस्वर सुनाया:-

दुनिया में देव हजारों हैं/बजरंगबली का क्या कहना/ उनकी भक्ति का क्या कहना/ इनकी शक्ति का क्या कहना

सुनकर सब भक्ति से ओत-प्रोत हो गए।
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जगन्नाथ मंदिर का पवित्र महाप्रसाद
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महाराज श्री ने बताया कि लक्ष्मी जी के द्वारा भोजन बनाने के कारण जगन्नाथ मंदिर का प्रसाद सदैव पवित्र ही रहता है। उस महाप्रसाद के ग्रहण करने से सब पवित्र होते हैं। महाप्रसाद का दर्शन और स्पर्श भी अद्वितीय फलदायक है। आपने बताया कि उड़ीसा में तो सगाई की रस्म भी अंगूठी पहनकर संपन्न होने के स्थान पर महाप्रसाद की परस्पर भेंट के साथ संपन्न होती है। लोग महाप्रसाद हाथ में लेकर शपथ लेते हैं। मित्रता महाप्रसाद परस्पर खिलाकर प्रगाढ़ होती है।
स्कंद पुराण का उल्लेख करते हुए आपने बताया कि महाप्रसाद इतना पवित्र है कि उसके सेवन से रोगों की शांति होती है, संतान होती है, दरिद्रता का नाश होता है, विद्या की प्राप्ति होती है। इस संसार का सर्वश्रेष्ठ पदार्थ महाप्रसाद ही है। मिलते ही महा प्रसाद को खा लेना चाहिए।
महाप्रसाद की महिमा को एक कथा के माध्यम से आपने यह बताया कि एक लुटेरे का पुत्र जो आगे चलकर स्वयं भी लुटेरा ही बना; एक बार लूटपाट करते हुए घायल हो गया। तब उसकी मां ने उसे जगन्नाथ पुरी में जाकर केवल महाप्रसाद खाते हुए कुछ समय बिताने का परामर्श दिया। इस परामर्श पर अमल करने से वह लुटेरा सब प्रकार से स्वस्थ ही नहीं हुआ, अपितु महान भक्त भी बन गया।
उड़िया भाषा में उस महान भक्त की कथा को महाराज श्री ने गा-गा कर सुनाया भी।
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वैष्णव अग्नि
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वैष्णव अग्नि का नाम बहुतों ने पहली बार ही सुना होगा। महाराज श्री ने बताया कि जगन्नाथ जी की रसोई की अग्नि कोई साधारण नहीं है, यह वैष्णव अग्नि है। इसी वैष्णव अग्नि से रसोई बनती है। यह वैष्णव अग्नि क्या है?- महाराज जी ने बताया कि वैष्णव-जन के हृदय से कृष्ण विरह का ताप जो अग्नि स्वरूप निकलता है, उस अग्नि से जगन्नाथ जी की रसोई बनती है। अर्थात वैष्णव जन जब जगन्नाथ जी को याद करते हैं, विरह में डूब जाते हैं; तब उस विरह के ताप से जो अग्नि बनती है इस विलक्षण अग्नि से महाप्रसाद तैयार होता है। इसलिए महाप्रसाद अत्यंत पवित्र माना जाता है।
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टेस्ट के चक्कर में टेस्ट
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बीच-बीच में हल्के-फुल्के हास्य-व्यंग्य से बड़ी-बड़ी बातें महाराज श्री भक्तों के हृदय में बीजारोपण के रूप में कर जाते हैं। आपने कहा कि पहले तो सब लोग स्वाद अर्थात टेस्ट के रूप में अभक्ष्य पदार्थ का सेवन करते हैं और फिर उस विकृत स्वाद के कारण जब स्वास्थ्य बर्बाद हो जाता है तो भॉंति-भॉंति के चिकित्सकीय परीक्षण अर्थात टेस्ट करते हुए जीवन को नर्क बना देते हैं। संक्षेप में टेस्ट के चक्कर में टेस्ट करते हुए घूमते रहते हैं। जब महाराज श्री ने यह कहा तो पूरा पंडाल मुस्करा उठा।
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ठाकुर जी को मनमानी वस्तुओं का भोग अनुचित
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आपने वर्तमान परिवेश में धार्मिक कार्यों के संबंध में एक बड़ी बात यह कहीं कि ठाकुर जी को उस वस्तु का भोग लगाना चाहिए जो उन्हें प्रिय न हो। इस मामले में मनमानी नहीं चल सकती। कोई चाहे कि ठाकुर जी को कोल्ड ड्रिंक का भोग लगाकर अपनी मनमानी करे, तो यह अनुचित है। इस दृष्टि से आपने एक भजन भी गया जिसके बोल इस प्रकार हैं:-

मीठी लागे तेरी छाछ/ पिलाय दे प्यारी मन भर दे

भगवान को तो छाछ पसंद है वह आपकी कोल्ड ड्रिंक भला क्यों पीने वाले हैं?
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प्रिय भजन
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एक प्रिय भजन अंत में महाराज श्री गाते हैं:-
जगन्नाथ जगन्नाथ तू न संभाले तो हमें कौन संभाले/ मेरी नाव सिर्फ एक तेरे सहारे
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अभिमान-रहित व्यवहार
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महाराज श्री में अभिमान नहीं है। विनम्रता की प्रतिमूर्ति हैं। स्वयं को बड़ा न मानते हुए दूसरों को बड़ा मानते हुए आदर देना आपका स्वभाव है। आपकी कथा के बाद बहन निकुंज कामरा जी की भजन संध्या थी, अतः महाराज श्री ने मुस्कुराते हुए कहा कि हमारी कथा में तो कुछ भारी-भरकम पन भी रहता है, लेकिन कथा के बाद बहन जी का जब मधुर कीर्तन होगा तो कथा पच जाएगी। उदाहरण देते हुए आपने कहा कि अगर आटे का पीपा भरा हुआ है तो हिलाने-डुलाने से उसमें जगह बन जाती है। तात्पर्य यह है कि निकुंज कामरा जी का भजन गायन इतना सुंदर है कि हमारी कथा में जो थोड़ा बहुत भाव का अभाव है, वह दूर हो जाएगा ऐसा महाराज श्री का आशय रहा।
अपने कथा क्रम को महाराज श्री ने गठबंधन की सरकार भी बता डाला। कहा कि हम तो सब इधर-उधर से पढ़कर आपके सामने प्रस्तुत करने वाले वक्ता मात्र हैं।
कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा

इस तरह हमने सब कुछ जोड़ा है। हमारा अपना कुछ नहीं। जगन्नाथ जी तो बहुत से लोग गए हैं लेकिन जगन्नाथ जी की रस कथा कम ही लोगों के भाग्य में होती है ।

महाराज श्री के कथा रस के उपरांत निकुंज कामरा जी ने इस भजन के साथ अपना संकीर्तन आरंभ किया :-
श्री राधे गोपाल भज मन श्री राधे
——————————-
लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा ,रामपुर ,उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451

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