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5 Jul 2024 · 4 min read

फ़ुरसत

फ़ुरसत

हज़ारों वर्ष पूर्व जब हम जंगल में रहते थे तो मनुष्य को औसतन चार घंटे लगते थे अपना भोजन जुटाने में , बाक़ी का समय उसका फ़ुरसत का था । बाक़ी के समय में वह चाँद पर वैसे ही मुग्ध होता रहा होगा , जैसे कि हम होते हैं , या सूर्यास्त उसे वैसे ही किसी विशाल से जोड़ता रहा होगा, जैसे हमें जोड़ता है । स्वयं को लेकर और ब्रह्मांड को लेकर उसके मन में कुछ प्रश्न उभरे होगे , जिनके उत्तर अभी भी हमसे दूर है , जैसे कि , ब्रह्मांड कितना बड़ा है , हम कौन है , भाग्य क्या है , और भी अनेक ऐसे प्रश्न, जिनके उत्तरों को ढूँढते हुए भले ही हम बहुत दूर निकल आये हों, परन्तु पूर्ण उत्तर तो नहीं मिले है । इन्हीं प्रश्नों का उत्तर ढूँढते हुए उसने अपनी कल्पना शक्ति और अवलोकन के बल पर मिथकों की कहानियाँ बुननी आरम्भ की होंगी , जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी वह अपनी संतानों को सुनाता आया होगा और कहानियाँ विस्तार पाती गई होंगी । आज हम उन्हीं कहानियों में मनोविज्ञान, तत्कालीन सामाजिक स्थितियाँ ढूँढते हैं । उड़ने की कल्पना इसी मनुष्य ने की होगी , जिसका प्रयत्न करते करते आज हम चाँद तक जा पहुँचे हैं , घर की चाह इसी मनुष्य ने की होगी कि आज हमारे पास क़िले , महल तो हैं ही , साथ ही हैं सुविधाओं से भरे हुए हवाई अड्डे । कहने का अर्थ है , हमारे जीवन में आज जो भी है , उसकी कल्पना कभी, इस जंगल में रहने वाले मनुष्य ने अपने फ़ुरसत के क्षणों में की होगी ।

स्थितियाँ बदली और मनुष्य को खेती करनी पड़ी । वह जमीं से बंध गया , और अब इस मनुष्य के पास फ़ुरसत के क्षणों की कमी होती चली गई। यह मनुष्य अधिक बीमारियों का शिकार हो गया , इसका भोजन भी उतना पौष्टिक नहीं रहा, सामाजिक ढाँचा भी बदल गया । अब लालच ने बल पकडा, अधिक से अधिक ज़मीन हड़पने के लिए युद्धों का आरम्भ हुआ । समाज अनेक वर्गों में बंट गया , व्यक्तिगत स्वतंत्रता सीमित होने लगी । अब हर किसी के पास फ़ुरसत यूं ही सहज उपलब्ध नहीं थी और न ही अपनी कल्पना को जगाने का समय। मिथक भी धीरे धीरे रूढ़ियों और भय में पनपने लगे । सहज ज्ञान की पिपासा, उसके लिए प्रयत्न और साहस की सुविधा, या तो धनी के पास थी , या उसके पास जो इस परंपरा का वंशज था । निर्धन लोग प्रायः इतनी फ़ुरसत नहीं पाते कि चिंतन को अपने जीवन का ध्येय बना सकें ।

इस समाज ने ज्ञान , विज्ञान, संगीत, साहित्य आदि का निर्माण किया , परन्तु इसके उपभोक्ता और रचयिता प्रायः समाज के सीमित वर्ग से आते थे , अपवाद हर समाज में हर युग में होते हैं । फिर आई प्रिंटिंग प्रेस, और आया वह युग जिसमें ज्ञान सार्वभौमिक होने की संभावना ने जन्म लिया । योरोप में चौदहवीं सदी में प्लेग आया , और इसने समाज का आर्थिक, पारिवारिक ढाँचा बदल कर रख दिया । ईसाईयत को ठेस पहुँची और जीवन के प्रति दृष्टिकोण अधिक उपभेगवादी हो उठा। न्याय प्रणाली, आर्थिक संस्थान, अस्तित्व में आने लगे । कुछ ही वर्षों में औद्योगिकरण आरम्भ हुआ और साथ ही उपनिवेशवाद भी । कुछ राष्ट्र तेजी से धनी हो रहे थे , इच्छा वहीं थी , प्रभुत्व बना रहे और इतना धन बन सके कि फ़ुरसत मिल सके । इन दो भावनाओं ने दो विश्व युद्धों को जन्म दे डाला , और इस बीच विज्ञान की कितनी ही नई शाखाओं का जन्म हुआ ।

मनुष्य सैद्धांतिक रूप से यह मानने लगा कि शिक्षा, भोजन, स्वास्थ्य, तथा फ़ुरसत सबको उपलब्ध होने चाहिए । दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात तकनीक इतनी बढ़ गई कि मनुष्य को लगने लगा कि अब वह प्रकृति पर विजय तो पा ही लेगा , साथ ही उसे जीने की फ़ुरसत भी मिलेगी । मन में ये इच्छायें लिए हम आज रोबोटिक और ए आई तक आ पहुँचे हैं , परन्तु मनुष्य के मन से न भय मिटा है और न ही उसे फ़ुरसत मिली है , अपितु वह और व्यस्त होता ही जा रहा है । छोटे छोटे समूह में रहने वाला मनुष्य कुछ ही वर्षों में महानगरों के कोलाहल में आ खड़ा हुआ है , जहां वह रोज़ अपनी फ़ुरसत को कल पर डाल देता है ।

अब प्रश्न उठता है कि क्या फ़ुरसत इतनी बड़ी चीज़ है , जिसकी मृगतृष्णा में हम हज़ारों वर्षों से भाग रहे हैं । हाँ , मेरे विचार में वह बहुत बड़ी चीज़ है । फ़ुरसत ही है , जो हमारी कल्पना को सजीव करती है , यही वह क्षण होते है , जब हम स्वयं के साथ कुछ पल बिताते है , यह पल हास्य विनोद के भी हैं और गहरी रचनात्मकता के भी ।फ़ुरसत वह है जिसमें मनुष्य समय और मैं दोनों को भूल कुछ पल सृष्टि से एकाकार हो , पूर्ण शांति अनुभव कर सकता है , वह जीवन ही क्या जिसमें फ़ुरसत न हो ।

इतिहास गवाह है कि समय के साथ हमारी फ़ुरसत के क्षण घटे हैं , और कुंठाएँ बड़ी है , तो क्या हमारे समाज की दिशा ग़लत है , क्या हमारी उन्नति भ्रम है ? हम अपनी तकनीकी उन्नति और पूंजीवाद के चिंतन में इतना आगे बड आए हैं कि इसके विरोध में सोचना भी ग़लत लगता है, परन्तु यदि इस दृष्टिकोण ने मनुष्य को फ़ुरसत नहीं दी है और उसे मानसिक तनावों से भर दिया है तो यह सोच सही कैसे हो सकती है ?

यदि आपको फ़ुरसत मिले तो जरा इस विषय पर सोचकर देखें और जीवन की दिशा को पुनः परखें । धन्यवाद ।

शशि महाजन
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