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17 May 2024 · 1 min read

‘पथ भ्रष्ट कवि'

‘पथ भ्रष्ट कवि’

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पथभ्रष्ट एक लोक कवि का अवरोध मिला कुछ क्षण मगर वेग पवन की दिशा नही बदली।

लाख सिखाया गा-गा कर गुमराही के गीत मगर सांसों में झंझावात की झंकार पुरानी वही रही।

मुखड़े पर डाला लाख मुखौटा दिल की चाहत छुप न सकी, सिक्कों की खनक बतला ही दिया है राज़ है कितना गहरा, सच बातों को ढँक न सकेगा गुमराहों का चिथड़ा।

भेष बदल कर बहुरुपिया बन ढोंग नये नित रच – रच कर करते रहे जो करोबार चंद पिपासु दरबारों का ।

हार गयी अब सारी चालें मन दर्पण में झांक कर देखो उतरा रंग मुखौटे का।

अब रूप नया क्या दिखलाओगे हर रूप तेरा जाना – पहचाना छुपा चोर मन के अंदर का

दर्शा दिया है ‘जनता की आवाज़’ कवि का सच्चा चेहरा।

* मुक्ता रश्मि *

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