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30 Nov 2021 · 1 min read

परिवर्तन

खुद डूबी क्या समंदर में कि तैरना आ गया,
खुश हूँ मुझे भी हालातों से उबरना आ गया।

ठहर जाते थे लोग कभी गैरों के आंसू देखकर,
वक्त के साथ सबको चुपचाप गुजरना आ गया।

जिन्हें जल्दी थी मंजिल की वो आगे चले गए,
हमें रास्तों से इश्क़ हुआ और ठहरना आ गया।

निगाहों में सजा सँवरा करते थे जिनके हम कभी,
फ़रेब क्या दिखा कि आईनों में सँवरना आ गया।

अब तो परछाई पर खुदकी भरोसा नहीं रहा है,
रौशनी कम हुई तो इसे भी साथ छोड़ना आ गया।

सीने में दफ्न रह गए थे जो शब्द तुम्हारे जाने पर,
वो चीखते हैं अब उन्हें पन्नों पर उतरना आ गया।

शुक्र है ये मलहम मेरे काम का तो निकला कुछ,
कलम उठाया और जख्मों पर लिखना आ गया।

✍️✍️✍️खुशबू खातून

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