मां की ममता
नव माह रखकर कोख में
रग में बहते खून से सींचा।
झेला प्रसव की पीड़ा को
अन्त दंभ को न भिंचा।
निचोड़ कर शरीर अपना
दूध हमको पिलाती।
स्वयं भूखे रहकर
रोटी हमको खिलाती।
हमें स्वस्थ देखकर
मन ही मन मुस्कुराती।
नित प्रयास करती और
हमें पढ़ना सिखाती।
जब बड़े हुए तो
भविष्य की चिंता करती।
दूर चले जाने पर
राह तकती रहती।
अब विवाह हुआ तब
फिर वो दौर आया।
एक बार बचपन
अपने में लौट आया।
मां आज भी उन पलों को
समेट कर जीती लेती है।
परिवार में कड़वाहट को
निशब्द ही पी लेती है।
हम भूल गये हैं मां के उस
न्यौछावर बलिदान को।
झूठे तापस में जी रहे
व्यर्थ के अभिमान को।
पर मां तो आखिर मां है ना
कुछ भी नहीं जताती है।
जिस भी हाल में रखते है
सब हंस कर सह जाती है।
फिर भी प्रेम पूर्ण भाव से
आशीष सदा वो देती है।
चिंता की बात सुनाते ही
पर भर में हर लेती है।
अब अपना दुःख मैं कहता हूं
बिन मां के अब मैं रहता हूं।
वो इस कठोर संसार में
मुझे अकेले छोड़ गयी।
मां की ममता को लुटाकर
मुझमें भाव को छोड़ गयी।
बहुत तरसता हूं मैं मां
तुझसे कुछ भी कहने को।
रो लेता हूं मैं आड़ में
तु पास नहीं है रहने को।
पर तेरी ममता की माया
नित मुझे नया सिखाती है।
मैं सच्चा और अच्छा बनूं
ख्यालों में हर्षाती है।
यदि वर पाये तू खुद को
गोदी में लेना फिर मुझको।
मां का प्रेम तो पुरा है
पर बालक अभी अधुरा है।
प्रेम शंकर तिवारी
वाराणसी उत्तर प्रदेश