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2 Dec 2018 · 1 min read

नई किरण - नई चाह

आज फिर नई चाह लिए घर से मैं निकला रहा हूँ,
सोच ऊँची और नजर नीची कर चल रहां हूँ।
सूरज की इसी उगती नई किरण से आशाएं कई रखता हूँ,
रात के अंधेरे मे जो खो गया,
रोज उसे मैं बूरे सपने की तरह भूल जाता हूँ।
आज फिर नई चाह लिए घर से मैं निकला रहा हूँ,
सोच ऊँची और नजर नीची कर चल रहां हूँ।
कल तक जिन्हें अपना था बनाया,
आज उन रिश्तों को बचा रहा हूँ,
छोटी सी नोक-झोक से टूट न जाए,
नाजुक रिश्ते बस इसी बात से घबरा रहा हँू।
आज फिर नई चाह लिए घर से मैं निकला रहा हूँ,
सोच ऊँची और नजर नीची कर चल रहां हूँ।
खुद के इस बदलाव को खुद को अहसास करवा रहा हूँ,
कुछ अपने रूठ रहे हैं कुछ हैरान है,
ये भी महसूस कर रहा हूँ।
आज के इस बदलाव से मुकाम नया मिलेगा,
बस इसी विश्वास से खुद को मैं बदल रहा हूँ।
आज फिर नई चाह लिए घर से मैं निकला रहा हूँ,
सोच ऊँची और नजर नीची कर चल रहां हूँ।

गुरू विरक
सिरसा (हरियाणा)

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