_22_मैं दर्पण हूं टूटा सा
कालिख पूरित उन गलियों में,
रक्त रंजित उन कलियों में,
पथ भ्रमित हो गया हूं,
रजनीचरों के मध्य खो गया हूं,
भटक गया हूं सुमार्ग पाने को,
अपनी किस्मत से रूठा सा,
मैं दर्पण हूं इक टूटा सा।।
स्वमूर्ति मुझे लज्जित करती है,
मेरे हालात पर वो शोक करती है,
अवलिप्त हूं जिसकी कोई हस्ती नहीं है,
ठोकर मिली जो इतनी सस्ती नहीं है,
बेचैन हूं स्वपरिचित होने को,
अपने आप से छूटा सा,
मैं दर्पण हूं इक टूटा सा।।
अज्ञानियो को मान बैठा ज्ञानी,
हरकत कर गया कैसी बचकानी,
झूंठे ज्ञान ने घेर लिया मुझे,
अपमान की भयावह सज़ा दिया मुझे,
गौरवान्वित होने से डर लगता है मुझे,
खड़ा हूं जैसे बरगद के ठूंठा सा,
मैं दर्पण हूं इक टूटा सा।।
हर शिखर इक धूल सा था,
मेरा हर स्वप्न इक भूल सा था ,
बुझ गए नैनों के दीप,
झटके से ज्यों टूटे सीप,
जोड़ता हूं ख़ुद को ऐसे,
जैसे हो दीपक कोई फूटा सा,
मैं दर्पण हूं इक टूटा सा।।