15. गिरेबान
पर्दें जो हैं ज़ुबान पर
दुनियादारी के नाम पर ,
वो भी धुंधला जाते हैं
जब हम तन्हा होते हैं।
उन्हीं पलों में उठता है
राख मेरे मृत भावों का,
वो पन्नों पर जी जाते हैं
जब हम तन्हा होते हैं।
साँझ को कोई कोयल
फिर कहीं रोया करती है,
आँसू भी रोया करते हैं
जब हम तन्हा होते हैं।
आकाश की राहों से आकर वो
मन में कहीं खो जाते हैं,
मन जंगल हो जाता है
जब हम तन्हा होते हैं।
देर सवेर रुककर वो
ढूंढते होंगे मेरी छवि,
परछाई भी साथ ना देती है
जब हम तन्हा होते हैं।
एहसास मेरे ना होने का
उनको भी कुम्हलाता होगा कभी,
तनहाई में और खो जाते हैं
जब हम तन्हा होते हैं।
वैसे मेरी यादों को ही
सच मान वो बैठे हैं,
आईने भी झूठ दिखाते हैं
जब हम तन्हा होते हैं।
तन्हा होते हैं वो भी मगर
आईने में खुद को नहीं देखते,
गिरेबान मैं महफ़िल सजाते हैं
जब हम तन्हा होते हैं।।
~राजीव दुत्ता ‘घुमंतू’