12- अब घर आ जा लल्ला
बड़े सुहाने दिन बचपन के, मिलती मीठी गोली।
खेल खेलने चल देते थे, साथ सभी हमजोली।।
मिलते थे सब यार जहाँ पर, खूब मचाते हल्ला।
दादी कह-कह थक जाती थी, अब घर आ जा लल्ला।।
धूल पसीने से लतपथ हो, जब हम सब थक जाते।
ताल तलैया में जाकर हम, घण्टों खूब नहाते।।
पापा जब भी डाँट सुनाते, रो-कर झाड़ें पल्ला।
दादी कह-कह थक जाती थी, अब घर आ जा लल्ला।
खेले कंचे, चोर-सिपाही, खो-खो, गुल्ली-डंडा।
जहाँ खेलने जाएँ हम सब, वहाँ गाड़ दें झंडा।।
ख़ूब रनों की बारिश होती, ऐसा चलता बल्ला।
दादी कह-कह थक जाती थी, अब घर आ जा लल्ला।।
खेलकूद में बचपन बीता, फिर यौवन की माया।
मिली सलोनी बीबी जिसकी, मस्त छरहरी काया।।
मुझे चिढ़ाते घर वाले अब, कहने लगे निठल्ला।
दादी कह-कह थक जाती थी, अब घर आ जा लल्ला।।
मैंने तो वो सब लिख डाला, गुजरे वक्त सुहाने।
कहाँ मिले बचपन के दिन वो, याद अभी अफसाने।।
कुछ दिन औ’ है बीता यारों, आया राजा लल्ला।
‘विमल’ उसे कहता फिरता हैं, अब घर आ जा लल्ला।।
~अजय कुमार ‘विमल’