कुछ परिंदें।
![](https://cdn.sahityapedia.com/images/post/be9c8fec053ebd1d63a67593359cc00e_90ab28c001d1bc3738b557d4d646115c_600.jpg)
कुछ परिंदें आपस में चह चहा रहें हैं।
शायद वो इंसानों के बारें में बतला रहें हैं।।
बड़ी मुश्किल से मिला है इक शजर उन्हें।
जिस पर वो अपना आशियां बना रहें हैं।।
जाना न उड़कर कही,शिकारी है इंसा।
वो अपने छोटे बच्चों को समझा रहें हैं।।
खेत खलिहानों की जगह लेली मकानों ने।
हर जगह इंसा अपना कब्ज़ा जमा रहें हैं।।
जब थे उनके पास तो कैद रहे पिंजड़ों में।
अब आज़ादी में भूख से बिलबिला रहें हैं।।
हर मखलूख के हिस्से आई थी कायनात।
पर ये इंसा इसे सिर्फ़ अपना बना रहें हैं।।
ताज मोहम्मद
लखनऊ