मुझे ना पसंद है*
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मुझे ना पसंद है
वह पंखे की वो हवा
जो वजन के अभाव में
टेबल पर पड़ी
हमारी कविताएं गिरा देती है
मुझे ना पसंद है
वो बंद दरवाजे
जिसके अंदर बैठ
साजिश रची जाती है
मुझे ना पसंद है
वह सफेदपोश लोग
जो अपने असली रंग
को अंदर छुपाते हैं
मुझे ना पसंद है
वह अमीर लोग
जो गरीबों के निवाले
समूचे निगल जाते हैं
मुझे ना पसंद है
वह साधु और मौलवी
जो धर्म के नाम पर
औरतों की अस्मत से
खेल जाते हैं
मुझे ना पसंद है
वह कान
जो दिखते नही
पर सब सुन जाते
काश मेरी पसंद पर
कोई मोहर लगाता
मेरी नापसंद को
इस जहां से हटाता
मौलिक एवं स्वरचित
मधु शाह