हिन्दुत्व, एक सिंहावलोकन
हिन्दुत्व_एक सिंहावलोकन
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अतीत की स्मृतियों से ,
अश्कों के अल्फाज पुछते हैं।
खता तो दुश्मनों ने की थी ,
पर मेरे क्यूँ जख्म गहरे हैं।
बटी थी हिन्द की सीमा ,
किस फरियादी की रहमत में।
जब छोड़ दी जमीं तेरी ,
फिर क्यों मैं हूँ इस ज़हमत में।
धरा जो बच गई थोड़ी ,
सुषुप्त सोता रहा उसमें ।
उरग वृंद बस गए आकर ,
मिलाया जहर अमृत में ।
अब अस्तित्व का संकट ,
हमारा सुख चैन छीना है ।
हिन्दुत्व सदियों पुरानी है ,
कठिन उसको बचाना है ।
विचारों की संकीर्णता ने ,
सदा इसको ही लूटा है।
सदा सहिष्णु रहा हिन्दुत्व ,
मूढ़ कहते कि ये झूठा है।
धर्मस्थल थे जो आस्था के ,
एक एक करके टूटा है।
गुरुकुल थे जो अरमानों के ,
वो भी साजिश में छूटा हैं।
खो रहा है अब इस युग में ,
पुराने संस्कार का गहना।
कुधर्मियों के चंगुल में ,
जा फंसती क्यूँ अब बहना।
क्यूँ दिखता नहीं अब तो ,
श्रवण कुमार सा वो बेटा ।
वृद्धाश्रम हो हर शहरों में ,
यही सोचते हैं आज नेता ।
धरा का धर्म है हिन्दुत्व ,
कहीं नफरत नहीं फैलाया ।
दूरस्थ देशों में जाकर ,
कभी लूटपाट न मचाया।
कभी घुसपैठ बनकर के ,
वहां सत्ता को न ललकारा।
कभी साजिशें कोई रचकर ,
लहू में जहर न घोला।
उग्रवाद की जड़ें अजहद ,
कभी पनपी नहीं हमसे।
आतंक की घिनौनी साजिश ,
सदा ही दूर है हमसे।
साम्राज्यवाद की चासनी से ,
ये धर्म तो दूर ही रहता।
फिर संकोच अब कैसा ,
तू खुद को हिन्दू नहीं कहता।
गुजरते वक़्त की खामोशियों से ,
हमें बस सतर्क रहना है ।
सभी हिन्दू जन अब जाग्रत हो ,
जय हिन्दुत्व हमें कहना है।
मौलिक और स्वरचित
मनोज कुमार कर्ण