साहित्य में साहस और तर्क का संचार करने वाले लेखक हैं मुसाफ़िर बैठा : ARTICLE – डॉ. कार्तिक चौधरी
साहस जीवन जीने के लिए ही नहीं अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए भी जरूरी होता है। अतः साहस का मतलब ही है निष्पक्ष ढंग से अपने बातों को प्रस्तुत करना। निष्पक्ष ढंग से जीने के लिए हमें अपने जीवन में सबसे अधिक विज्ञान के तर्क प्रणाली के करीब होना होगा, साथ ही, सतत अभ्यासरत भी रहना होगा।
वैसे मैं बताना चाहूंगा कि अभ्यास से अध्ययन का रिश्ता काफी नजदीकी होता है। वैसे में बहुत से ऐसे साहित्यकार हैं जो अपनी बातों को वैज्ञानिक सम्मत तो रखते हैं लेकिन गोल मरोड़ कर। ऐसे में पाठक में उसका भाव स्पष्ट की कुछ भ्रांतियां भी होती हैं जो कि एक स्वस्थ्य परंपरा के लिए ठीक नहीं है।
अब बात दलित साहित्यकार और उनकी रचना की। वैसे मैं बता दूं कि दलित साहित्य साहस का साहित्य है जो अपने खरापन के कारण ही अस्तित्व में आया, वहीं दलित साहित्यकार अपने विज्ञान सम्मत बराबरी के अधिकार को साहस के साथ रखने के लिए।
इस संदर्भ में मुसाफ़िर बैठा एक महत्वपूर्ण और चिरपरिचित नाम है, जिनका साहित्य साहस और तर्क के साथ समानता का मिसाल है। बहुत बार हम अपने जीवन में व्यक्तिगत सम्बन्धों को बनाने और बचाने में समझौता कर जाते है। ऐसे में यह समझौता आत्मसम्मान को भी ठेस पहुचाती है। जबकि हम सभी को पता है कि दलित साहित्य का अर्थ ही है अपने आत्मसम्मान और स्वाभिमान के अस्तित्व के लिए रचना करना। इस संदर्भ में मुसाफ़िर बैठा का साहित्य पूरे तरीके से फिट बैठता है। मुसाफ़िर बैठा का रचनात्मक योगदान किसी प्रकार का समझौता नहीं करता बल्कि जब अपना भी कोई भटकता है या थोड़ा अलग होता है तो उनका तर्क रूपी फटकार दिखाई पड़ने लगता है। बहुत बार हम व्यक्तिगत जीवन में साहसी होते हैं लेकिन सामाजिक जीवन में उसे व्यक्त नहीं कर पाते, ऐसा होने के अनेक कारण हो सकते है लेकिन ऐसे लोगों के लिए मुसाफ़िर बैठा का साहित्य सम्बल हैं।
मुसाफ़िर बैठा का जन्म 5 जून 1968 को सीतामढ़ी बिहार में हुआ। उन्होंने हिंदी से पीएचडी, अनुवाद और पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा के साथ सिविल इंजीनियरी में त्रिवर्षीय डिप्लोमा किया।दलित साहित्य में उनके योगदान की बात करे तो दो काव्य संग्रह ‘बीमार मानस का गेह’ और ‘विभीषण का दुख’ काफी चर्चित रहा है और ’बिहार-झारखंड की चुनिंदा दलित कविताएं’ साझा कविता संकलन का सम्पादन कर उन्होंने एक ऐतिहासिक दस्तावेज को हम सभी के समक्ष उपस्थित किया है।
मुसाफ़िर बैठा मूलतः कवि, कहानीकार और आलोचक के साथ टिप्पणीकार भी हैं। वहीं आप उनकी फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्वीटर जैसे सोशल मीडिया की पोस्ट को देखकर अनुमान लगा सकते हैं कि उनकी टिप्पणी कितनी महत्वपूर्ण और जरूरी होती है।
मुसाफिर बैठा ने दलित साहित्य में अम्बेडकरवादी हाइकु की भी शुरुआत की जिसे दलित साहित्य के विकास का एक नया अध्याय ही माना जायेगा। उनके द्वारा लिखे गए हाइकु भारतीय समाज में समानता के अवधारणा का संवाहक ही बनते हैं। यही कारण है कि हम सभी लोग नए जमाना के आश में नए जीवन को तलाश रहे हैं लेकिन वह बताना चाहते हैं कि जब तक सामाजिक दूरियां कम नहीं होगी ऐसे में नए जमाना का निर्माण करके भी हम बहुत कुछ नहीं बदल पाएंगे। अतः सही मायने में अगर अपने समाज और देश का विकास करना है तो हमें सबसे पहले सामाजिक असमानता और भेद-भाव को मिटाना होगा। उनके हाइकु से –
“छूत अछूत
भाव कायम, खाक
नया जमाना!”
दलित साहित्य बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों से ऊर्जा ग्रहण करता है। बाबा साहेब अम्बेडकर का मतलब ही है सामाजिक बराबरी, वैज्ञानिक चेतना का विकास और सबका साथ होना। यही कारण है कि मुसाफ़िर जी अपने हाइकु में लिखते हैं कि –
“बाबा साहेब
जिसका नाम, कर
उसका साथ!”
मुसाफ़िर बैठा की कविताओं पर अगर बात करें तो वहां सामाजिक समानता की प्रमुखता है वहीं समाज में छिपे भेद-भाव और उससे उपजी असमानता का वे पुरजोर तरीके से विरोध दर्ज कराते हैं। यही कारण है कि ‘थर्मामीटर’ कविता में वह लिखते हैं-
“कहते हो –
बदल रहा है गांव।
तो बतलाओ तो-
गांवों में बदला कितना वर्ण-दबंग?
कौन सुखिया ,कौन सामन्त?
कौन बदचाल, कौन बलवंत?”
भारतीय जनजीवन की आधी से अधिक आबादी गांवों में बसती है। वहीं बड़े–बड़े समाजशास्त्रियों और अर्थशास्त्रियों के अनुसार दावा यही किया जाता है कि गांव बदल रहा है, वहां की सामाजिक स्थिति पहले से समानता मूलक है लेकिन सही मायने में ऐसा है क्या? अगर ऐसा होता तो अभी भी आये दिन वर्ण भेद से उपजी अमानुषिकता की घटना क्यों अखबारों में आती है? अतः यही कारण है कि गांव में गैरबराबरी और वर्णव्यवस्था से उपजी अमानवीय करतूतों का चित्रण करते हुए वह कोई समझौता नहीं करते हैं।
दलित साहित्य में आक्रोश एक तरीके से उसका सौंदर्य है तो वही प्रेम, भाईचारा और मैत्री की स्थापना उसका उद्देश्य है। मुसाफ़िर बैठा की कविता ‘बड़े भैया की लिखने की पाटी’ अपनेपन के भाव को संजोए रखना चाहती है। अतः हम यह कह सकते हैं कि यह कविता जीवन और जीवन जीने की जिजीविषा के लिए ऊर्जा उतपन्न करती है –
“जो भी हो
मैं बचाये रखना चाहता हूं
अपनी जिंदगी भर के लिए
बड़े भाई साहब की यह पाटी
बतौर एक संस्कार थाती।”
दलित साहित्य की एक प्रमुख विशेषता उसका यथार्थ है। अर्थात, दलित साहित्यकारों ने जो अपने जीवन में सहा और जो अनुभव किया वही साहित्य में भी आया। अतः दलित साहित्य अन्य साहित्य से अलग इसलिए भी है कि वह अपने साहित्य में महिमामंडन का कोई स्पेस ही नहीं देता है। दलित साहित्य के अंतर्गत जो रचनाएं आईं वह जीवन के लिए ऊर्जा का काम की है। मुसाफ़िर बैठा की कविता ‘जुनूनी दशरथ मांझी’ जीवन में हौसला का ही संचार करती है तभी तो द माउंटेन मैन दशरथ मांझी को अपना आइकॉन मानते हुए लिखते हैं कि –
“जीवन हौसले में हैं भागने में नहीं
किसी को अपनाना
उसके रास्ते चलने के प्रयासों में है
महिमा मंडित करने मात्र में नहीं
अपने रथहीन जीवन से भी
हम मांझी बन सकें बन सकें सारथि
दशरथ मांझी की तरह
जीवन की एक खूबसूरती यह है।”
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि मुसाफ़िर बैठा की कविताएं युवा पीढ़ियों में वैज्ञानिक चेतना का निर्माण तो करती ही हैं, साथ में अपने अधिकार के लिए लड़ने के साहस का भी संचार करती हैं। उनके साहित्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता उनकी फटकार शैली भी है जो कुछ समय के लिए आहत तो करती है लेकिन जब हम स्थायी होकर सोचते हैं तो वह हमें महत्वपूर्ण नज़र आने लगती है।