*साठ के दशक में किले की सैर (संस्मरण)*
साठ के दशक में किले की सैर (संस्मरण)
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रामपुर के किले का एक अलग ही आकर्षण रहा है । हर शहर में किले नहीं होते और किले का जो चित्र हमारे मानस पर राजस्थान के किलों को देखने के बाद उभरता है ,वैसा रामपुर का किला नहीं है।यह न तो ऊँची पहाड़ी पर स्थित है और न ही इसके चारों ओर गहरी खाई है। वास्तव में यह व्यस्त सर्राफा बाजार तथा शहर के बीचोंबीच स्थित है। हमारे घर से इसकी दूरी पैदल की दो मिनट की है।
लेकिन हाँ ! मोटी दीवारें किले परिसर को गोलाई में चारों ओर से घेरे हुए हैं । बड़े और खूबसूरत दरवाजे हैं। एक पूर्व की ओर, दूसरा पश्चिम की ओर। खास बात यह भी है कि इन दरवाजों पर लकड़ी के मोटे ,भारी और ऊँचे किवाड़ इस प्रकार से लगे हुए हैं कि अगर समय आए तो किले के दरवाजे पूरी तरह से बंद किए जा सकते हैं। यद्यपि मैंने अपनी साठ वर्ष की आयु में कभी भी इन दरवाजों को बंद होते हुए नहीं देखा। मेरे बचपन में भी यह किवाड़ जाम रहते थे और आज भी जाम ही रहते हैं । किले के यह दरवाजे जब बने होंगे ,तब जरूर यह इतने बड़े होंगे कि इनमें से हाथी गुजर जाता होगा। लेकिन अब दरवाजे के बड़ा होने का यह मापदंड नहीं है । बड़े-बड़े ट्रक इन दरवाजों से निकलने में असुविधा महसूस करते हैं । दो कारें एक साथ आ – जा नहीं सकतीं।
साठ के दशक में रामपुर में किले के पश्चिमी दरवाजे अर्थात हामिद गेट के सामने एक दुकान हुआ करती थी। उस पर बच्चों की साइकिल किराए पर मिलती थी। प्रति घंटा के हिसाब से साइकिल किराए पर लेकर हमने साइकिल चलाना सीखी। न कोई गारंटी ली जाती थी, न बच्चे से उसका नाम पता मोहल्ला पूछा जाता था। जो चला गया, दुकानदार ने उसे साइकिल दे दी । किले के अंदर साइकिल चलाने के बाद बच्चे दुकान पर साइकिल वापस कर देते थे। किराया देते थे और घर चले जाते थे।
हामिद गेट के शिखर पर एक मूर्ति लगी थी, जिसका धड़ मछली की तरह था तथा चेहरा मनुष्य की भाँति था । इसके हाथ में एक झंडा हुआ करता था। मूर्ति सोने की तरह चमकती थी । हो सकता है कि इस पर सोने का पत्तर चढ़ा हुआ हो अथवा सोने का गहरा पालिश हो । अब इसका रंग बदरंग हो चुका है।
रजा लाइब्रेरी में उन दिनों सुरक्षा का इतना तामझाम नहीं था। सब का आना-जाना बेरोकटोक होता था । रजा लाइब्रेरी अर्थात हमिद मंजिल की सीढ़ियों तक सब लोग आराम से चल कर बैठ जाते थे। न कोई पूछने वाला था, न कोई टोकने वाला ।
रजा लाइब्रेरी के आगे का पार्क हम बच्चों के खेलकूद के लिए एक अच्छा स्थान था। एक दूसरा पार्क भी बराबर में था। लेकिन बच्चों की पहली पसंद रजा लाइब्रेरी के आगे वाला पार्क था। यहॉं पर बीचों-बीच एक फव्वारा बना था और आराम से बैठने के लिए संगमरमर की दो छतरियॉं हुआ करती थीं। पार्क में प्रवेश करना एक साधारण-सी बात थी। चाहे जितने बजे सुबह को आ जाओ, शाम को जब चाहे आओ, चले जाओ, कोई प्रतिबंध नहीं था ।
रजा लाइब्रेरी के पार्क के चारों तरफ की चारदीवारी ईट-सीमेंट की नहीं थी । केवल पौधों की झाड़ियां बनी हुई थी जिन पर गर्मियों में सैकड़ों-हजारों की संख्या में सफेद फूल खिलते थे । पूरा रास्ता फूलों से महकता रहता था ।
रंगमहल और हामिद मंजिल को जोड़ने वाली सड़क उन दिनों आम रास्ता था। इसी से होकर किले के पूर्वी दरवाजे तक सब लोग जाते थे। किले के पूर्वी दरवाजे से लगा हुआ किले के भीतर एक तीसरा पार्क भी था। इस पार्क का मुख्य आकर्षण बीचों-बीच लगी हुई एक अंग्रेज की आदमकद मूर्ति थी । मूर्ति की ऊॅंचाई लगभग छह फीट होनी चाहिए। पेंट और कोट पहने हुए यह अंग्रेज एक स्वस्थ, सुंदर और पचास-साठ वर्ष आयु का व्यक्ति जान पड़ता था। उसके हाथ में कुछ कागज थे,जो कि सफेद पत्थर के ही बने हुए दिखाई पड़ते थे। मूर्ति सफेद पत्थर की थी तथा लगभग चार फीट ऊॅंचा आधार बनाकर वह मूर्ति उस पर रखी गई होगी। उस समय बच्चे आपस में चर्चा करते थे कि यह उस अंग्रेज की मूर्ति है, जिसने किले का नक्शा बनाया था। उस मूर्ति पर शायद कुछ नहीं लिखा था ।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451