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8 Mar 2024 · 6 min read

*सर्राफे में चॉंदी के व्यवसाय का बदलता स्वरूप*

सर्राफे में चॉंदी के व्यवसाय का बदलता स्वरूप
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1970 के दशक तक जो सर्राफा व्यवसाय का स्वरूप था, वह 20वीं शताब्दी के अंत तक बिल्कुल बदल गया। 1970 के दशक में रामपुर (उत्तर प्रदेश) में सर्राफा बाजार की सभी दुकानें लगभग एक जैसी होती थीं।सब पर दरी-चॉंदनी बिछी होती थी। दुकानदार अपनी दुकान की चॉंदनी पर पालथी मारकर बैठते थे। यह जगह गद्दी कहलाती थी। गद्दी पर पालथी मार कर बैठते में सुविधा की दृष्टि से पीठ पर एक तकिया लगा रहता था।

दुकान पर चढ़ते ही सब लोग अपनी चप्पल-जूते एक तरफ उतार कर रखते थे। फिर क्या ग्राहक और क्या दुकानदार, सबको पालथी मारकर ही बैठना होता था। किसी भी दुकान पर ग्राहकों के बैठने के लिए एक स्टूल तक नहीं होता था। कुर्सी तो बहुत दूर की बात है। कमाल यह भी है कि उस जमाने में कोई ग्राहक यह शिकायत करता हुआ नहीं दिखता था कि वह जमीन पर नहीं बैठ सकता। चॉंदनी सब की दुकानों पर सफेद रंग की बिछती थी । कुछ दिनों बाद जब मैली हो जाती थी तो धोबी के पास धुलने के लिए चली जाती थी। इस तरह चॉंदनी के दो सेट सब की दुकानों पर होते थे। बदल-बदल कर काम में आते रहते थे।

दुकान के अगले हिस्से में चबूतरा अवश्य होता था। दरी-चॉंदनी चबूतरे पर भी बिछाई जाती थी। बहुत से लोग जो सामान्य रूप से मिलने-जुलने के लिए दुकानदारों के पास पधारते थे, अक्सर चबूतरे पर ही पैर लटका कर बैठ जाते थे। बहुधा जूते पहने रहते थे। कई बार जूते उतार कर चबूतरे पर पालथी मार लिया करते थे। बिना कुर्सी की यह व्यवस्था सर्राफा बाजार में अच्छी मानी जाती थी। किसी को इसमें कोई दोष नजर नहीं आता था।

1990 के दशक के बाद शोरूम का प्रचलन शुरू हो गया। प्रारंभ में इसकी गति बहुत धीमी थी, लेकिन धीरे-धीरे इसने तेजी पकड़ी। बड़ी संख्या में बाजार में पुराने स्टाइल की दुकानों के स्थान पर शोरूम निर्मित हो गए। जिन दुकानों ने अपने को चमचमाते हुई शोरूम में परिवर्तित नहीं भी किया, तो उन्होंने कुर्सी पर बैठने का चलन अवश्य शुरू कर दिया। इस तरह लगभग शत-प्रतिशत दुकानों से दरी-चॉंदनी की बिछाई और पालथी मारकर बैठने की परंपरा लुप्त हो गई।
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गॉंवों में चॉंदी के आभूषणों का प्रचलन
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ग्रामीण क्षेत्र से जो ग्राहक आते थे, उनके द्वारा बड़ी संख्या में चॉंदी के आभूषण शादी-ब्याह के लिए खरीदे जाते थे। दो किलो चॉंदी के जेवर खरीदना कोई बड़ी बात नहीं होती थी। एक किलो से अधिक तो लगभग साधारण परंपरा थी। चॉंदी के हसली, खॅंडुवे, कड़े और बरे 1970 के दशक में खूब चलते थे। यह ठोस चॉंदी होती थी। ठोस मतलब शत-प्रतिशत चॉंदी। इसे ईंट की चॉंदी भी कहते थे। ईंट की चॉंदी नामकरण इसलिए हुआ कि हसली-खॅंडुए आदि को कसौटी पर बजाकर देखने से ईंट की जैसी ठस्स की आवाज आती थी।
खंडुवे हाथों में पहनते थे। हसली गले में पहनी जाती थी। पैरों में कड़े और बाहों में कोहनी के ऊपर बरे पहनने का चलन था। हसली खंडवे ढाई-ढाई सौ ग्राम के तथा पैरों के कड़े पॉंच सौ ग्राम के पहनने का प्रचलन था। पुराने आधे सेर के पैरों के कड़े भी एक सामान्य रिवाज था। बरों का रिवाज ज्यादा नहीं चला, लेकिन बहुत बाद तक हसली-खंडवे दो-दो सौ ग्राम के चलते रहे। खंडवे-हसली और कम वजन के भी प्रचलन में आए।
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अंग्रेजों वाले चॉंदी के सिक्के
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अंग्रेजों के जमाने के चॉंदी के सिक्के शायद ही कोई ग्रामीण परिवार ऐसा होगा, जहॉं दस-बीस न हों । लंबे समय तक प्रायः रोज ही कोई न कोई ग्रामीण क्षेत्र का ग्राहक अपने पास रखे हुए अंग्रेजों के चॉंदी के सिक्कों को बेचने चला आता था। 21वीं सदी जब शुरू हुई, तो चॉंदी के सिक्के आना लगभग बंद हो गये । संभवतः चॉंदी के सिक्कों का घरों में भंडार समाप्त हो चुका था।
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जड़ाई और पुहाई वाले चॉंदी के अनोखे आभूषण
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चॉंदी के सिक्कों का एक उपयोग आभूषणों में भी हुआ। एक आभूषण का नाम हमेल था। इसमें दस से लेकर सोलह सिक्के तक कुंडे लगे हुए होते थे। इन्हें रंगीन डोरे में पिरोया जाता था। सिक्कों के मध्य में एक चौकोर गित्ता सुशोभित रहता था। गित्ते में चॉंदी के घुॅंघरू लगाकर उसे आकर्षित बनाया जाता था। हमेल पोने के लिए बाजार में पोने वाले लोग उपस्थित रहते थे। इन्हें पटवा कहा जाता था। इनका काम आभूषणों को रंग-बिरंगे धागों में पोना होता था। धागों में पोकर पहने जाने वाले आभूषणों में गले का गुलुबंद तथा हाथों की पौंची मुख्य रहती थी। गुलूबंद गले में तथा पौंची हाथों में पहनी जाती थी।

गुलुबंद और पौंची में
विशेषता यह थी कि यह धागे से पोए जाने के साथ-साथ आकर्षक नगीनों और कॉंच के टुकड़ों से जड़ी हुई भी होती थीं। यह जड़ाई का कार्य ग्राहकों के आर्डर पर उसी दिन तत्काल पूर्ण किया जाता था। जड़ाई का काम भी इतना ज्यादा होता था कि बाजार में एक से अधिक कारीगर इस काम के लिए दिनभर उपस्थित रहते थे । पौंची में बीस की चौलड़ी संपूर्ण मानी जाती थी। अर्थात बीस-बीस दानों की चार लड़ियॉं पूरे हाथ की कलाई को ढक देती थीं। कम खर्चे में चॉंदी की पौंची बनवाने वाले ग्राहक अठारह अथवा सोलह की चौलड़ी भी बनवाते थे। धागों की पुआई तथा सुंदर नगीनों की जड़ाई से चांदी के आभूषण निखर उठते थे। जड़ाई करने वालों को जड़िया कहा जाता था । इनके पास जड़ाई का सब सामान तैयार रहता था। जैसा ऑर्डर मिलता था, देखते ही देखते इनके कुशल हाथ जड़ाई पूरी करके ग्राहक की तबियत खुश कर देते थे।
अब पुराना दौर समाप्त हो चुका है। चॉंदी के गुलुबंद, पौंची और हमेल अतीत की वस्तु बन चुके हैं । न इनके पहनने वाले हैं , न तैयार करने वाले कारीगर हैं। पूरे बाजार में चॉंदी के आभूषणों को धागों से पोने वाले अथवा नगीनों से जड़ने वाले कारीगर अब नदारत हो चुके हैं । वह अन्य कार्यों के साथ स्वयं को संलग्न कर चुके हैं।
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चॉंदी की गलाई का रूप भी बदला
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चॉंदी की गलाई और पकाई के स्वरूप में भी बड़ा भारी परिवर्तन आया है । 1970 के दशक के अंत में महाराष्ट्र से चॉंदी गलाने वाले उत्साही मराठा समुदाय के लोग रामपुर में आकर बस गए। इन्होंने चांदी गलाने की अपनी दुकानें खोलीं । इनकी तकनीक नयी थी। इसके पहले तक चांदी के आभूषणों की थकिया होती थी। थकिया बनाने में पुराने आभूषणों को मिट्टी में एक हल्के से गड्ढे में रखकर उस पर तेज ऑंच की लौ से आग का प्रेशर दिया जाता था । इसके फलस्वरुप शुद्ध चांदी लगभग 96 प्रतिशत शुद्धता के साथ अलग हो जाती थी। इसे ही ‘थकिया’ कहा जाता था। थकिया के साथ भारी मात्रा में कीट भी निकलता था। कीट एक प्रकार से अशुद्धता और चांदी का मिश्रण कह सकते हैं। कीट खरीदने वाले बाजारों में अक्सर घूमते रहते थे। वह कीट खरीदने के बाद उसमें से परिश्रमपूर्वक चांदी निकालते थे।थकिया स्थानीय कारीगर बनाते थे। महाराष्ट्र से मराठा कारीगर आने के बाद थकिया का सिस्टम खत्म हो गया।
मराठा कारीगर चांदी के आभूषणों को एक घड़िया में रखकर तेज आंच पर गलाते थे । गली हुई चांदी में अशुद्धता भी मिली रहती थी। इसको एक आयताकार सांचे में एकत्र करने के बाद उसमें से पॉंच ग्राम के लगभग चांदी छैनी-हथौड़े से काटकर प्रयोगशाला में शुद्धता की जांच की जाती थी । यह प्रयोगशालाएं प्रत्येक मराठा कारीगर के पास रहती थीं । फिर उसके बाद काटी गई चांदी में जितनी शुद्धता पाई जाती थी, उसी के आधार पर चांदी की सिल्ली बाजार में बिक जाती थी। चांदी की परीक्षण के उपरांत जॉंची गई शुद्धता को टंच कहते थे। प्रामाणिकता के साथ टंच बताने के लिए एक लिखित रूप से टंच फॉर्म ग्राहक अर्थात दुकानदारों को दिया जाता था। यह टंच फॉर्म मराठा कारीगर देते थे। आज भी चॉंदी गलाने की यही मराठा पद्धति प्रचलन में है।
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