संतृप्ति
विषय:संतृप्ति
स्वर्ण जड़ित सिंहासन राजा के
फिर वो क्यो अतृप्त सा रहता
नैन कटीले क़ातिल प्रेयसी के
फिर क्यो घोर अंधेरा जीवन
आकर्षण उसका सजीला
फिर भी क्यो व्यथित मन
आकुल दर्शन को हे प्रभु
आकर दरस दिखाओ
प्रिय मिलन की आस लगाए
क्यो बैठी विरहणी
ये जीव हमेशा अतृप्त
सम्मोहन के पास में बंधा
क्यो नही दी जीवन तृप्ति
हे ईश्वर तेरी ये माया
हर काया में तेरा वास
फिर क्यो नही होता नर तृप्त
क्यो करता रहता जीवन विनाश
यौवन छूटा सुकुमारी का तो
स्वप्न टूटा उसके सुकुमार का
दिव्य प्रेम जो था दोनो में
अभिनंदन उसको सब करते
पर यह मोह माया हैं नही होता
इससे जीवन तृप्त
क्रूर लालसाएं अंदर उमड़ती
मन लालच के पास में बंधकर
तन मन वेराग्य पर नही तृप्ति
मृगतृष्णा के लोभ में मानव
करता अपनी अधोगति स्वयम ही
निर्मलता का चोगा पहने क्यो रहता अतृप्त
हो अमिट संबंध हे ईश्वर तुझसे
तो हो जाए मन सबका तृप्त
डॉ मंजु सैनी
गाजियाबाद