Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
20 May 2023 · 3 min read

श्री गीता अध्याय छः

बोले श्री भगवान,पुरुष जो न कर्मफल का आश्रय लेते ।
हैं सन्यासी योगी वे ,केवल करने योग्य कर्म ही करते ।।

केवल अग्नि त्याग करने से सन्यासी नहीं होता कोई।
ना त्याग क्रिया का करने से, योगी हो जाता है कोई।।

हे अर्जुन!
जिसको कहते हैं सन्यास योग,तू जान ,जाग तो।
कहा ना जाता योग, केवल संकल्पों के त्याग को ।।

हैं जन जो आरूण योग में मननशील इच्छा वाले ।
वे ही तो हैं कर्मयोग में ,निष्काम भाव रखने वाले ।।

जिस भी काल में इंद्रिय भोग में, लिप्त नहीं होते जो।
उसी काल में ऐसे वे त्यागी, योगरूढ़ कहे जाते वो।।

अपने द्वारा अपना ही उद्धार करें, सभी स्वयं प्राणी।
करें सदा सत्कर्म ,स्वयं को अधोगति न डालें प्राणी।।

होता मित्र सदा ही ,आप स्वयं ही मनुज अपना।
बैरी भी होता वह स्वयं , सुनिश्चित आप अपना।।

जीत लिया तन-मन इंद्रिय से, जिस जीवात्मा द्वारा।
मित्र बना तब स्वयं,स्वयं का,कोई शस्त्र न जीतन हारा।।

सर्दी-गर्मी,सुख-दुखादि में ,हैं शांत प्रवृतियां जिसकी।
ऐसे ज्ञानी के अंतर में सिवाय,परमात्मा रहा न कुछ भी।।

मिट्टी,पत्थर और स्वर्ण मुद्राएं,सभी एक बराबर जैसे ।
वह है योगी भगवत्प्राप्त ,तृप्त हुई इच्छा वाला वैसे।।

है सहृदय,मध्यस्थ,तटस्थ,न मित्र न कोई जिसका बैरी ।
रखते बुद्धि श्रेष्ठ ,समभाव पापी हो या धर्म का प्रहरी।।

आशा और संग्रह रहित हो, शरीर को वश में करके।
स्थिर करें आत्मा को, परमात्मा में एकाग्रचित करके ।।

शुद्ध भूमि में उसके ऊपर, कुश और वस्त्र बिछा ले।
न ऊंचा हो न हो नीचा,आसन स्थिर स्थापित कर ले।।

तब उस आसन पर बैठ चित्त को वश में करके ।
मन को कर एकाग्र,सुन! योगाभ्यासी हो करके।।

काया,गला,सिर समान और अचल धारण करके।
शुद्ध अंतर्मन से,दृष्टि को अग्रभाग नासिका करके।।

स्थिर चित्त ब्रम्हचर्य में ,भय रहित भली-भांति से।
हो पारायण मुझ में, शुद्ध अंतःकरण,मन शांति से।।

हे अर्जुन! सिद्ध न होता योग, अधिक खाने वाले को।
न ही होता सिद्ध ये बिल्कुल, ना खाने-पीने‌ वाले को।।

यह ना होता सिद्ध सदा सोने वाले को ।
ना ही होता सिद्ध सदा जगने वाले को ।।

वायु रहित जगह पर, ज्यों रहती स्थिर दीपक ज्योति।
वैसी स्थिति परमात्म ध्यानमग्न ,जीते हुए योगी चित्त की।।

है अनंत आनंद परे इंद्रिय जो, मिले सूक्ष्म बुद्धि से।
कर ले अपने हित वही कार्य, पार्थ ! स्वयं समबुद्धि से।।

जो माने न परमात्मा प्राप्ति से बढ़कर,लाभ दूसरा कोई।
हों न वे चलायमान दुखों से, स्थिति सांख्य योगी की सोई।।

क्रम-क्रम से अभ्यास करें, उन्नति प्राप्त करता जाए।
छोड़ सभी चिंताएं,परमात्म लीन होकर रमता जाए।।

जब-जब विचलित हो मन, सांसारिक विषयों से।
तब-तब करे निरुद्ध, जोड़े स्वयं को परमात्मा से।।

जिसका मन है शांत रजोगुण निवृत रहित पापों से।
एकीभाव हों ब्रह्म में वे जन, रहित रहें संतापों से।।
जो है
सर्वव्यापी अनंत चेतन में, एकीभाव से युक्त आत्मा वाला ।
वह आत्मा को संपूर्ण भूतों में ,भूतों को आत्मा में देखने वाला ।।

चंचल है मनुज मन, दृढ़,बलवान, प्रमथन स्वभाव वाला।
वायु रोकने से भी दुष्कर यह, मैं तो हूँ ऐसा मानने वाला ।।

बोले श्री भगवान ….पार्थ हे !

निसंदेह है मन मुश्किल से है वश में होने वाला।
पर वैराग्य,अभ्यास से है ये स्ववश में होने वाला।।

है दुष्प्राप्य योग उस जन को ,जिसका मन न निज वश में ।
हाँ ! प्रयत्न से कर वश मन को ,यह रहता निज तरकश में।।

बोले अर्जुन.हे श्रीकृष्ण !

जो योग में श्रृद्धा रखते पर संयम नहीं रखते किसी कारण।
साधक वे कैसी गति पाते,जो न पाते सिद्धि ,करें निवारण।।

महाबाहो हे !

वे छिन्न-भिन्न बादल की भांति ,नष्ट तो नहीं हो जाते।
जैसे भटके हुए राही, आश्रयहीन निराश्रित हो जाते।।

संशय मेरा पूर्ण रूप से, दूर आप ही, हैं कर सकते।
योग्य न कोई तुम सम दूजा, जो मुझ को संतुष्ट कर दे।।

बोले श्री भगवान,
पार्थ ! जो भागवत प्राप्ति हेतु कर्म आत्मोधार को करते।
ऐसे उस प्राणी के लोक और परलोक दोनों ही संवरते।।

हे अर्जुन ! पुरुष योग भ्रष्ट भी पाते,स्वर्गादि उत्तम लोकों को।
वहाँ वर्षों करें‌ निवास,तब श्रीमानों घर जन्म मिलता उनको।

या यों समझो, ज्ञानवानों के कुल‌ में ही जन्में ऐसे जन।
दुर्लभ अति होता है,सद्गुणियों के घर पर पाना जन्म।।

हे कुरुनंदन !

ऐसे आश्रय में, पूर्व संचित संस्कारों को अनायास ही पाता।
उस प्रभाव से परमात्म प्राप्ति हेतु,आगे-आगे बढ़ता जाता।।

पराधीन भी योग भ्रष्ट तब, पूर्वाभ्यास से ईश हेतु आकर्षित होते।
जन्म-जन्म संस्कार बल से,संसिद्ध हो प्राप्त परम गति को होते।।

योगी होते श्रेष्ठ, तपस्वी और सकाम कर्म करने वालों से भी।
श्रेष्ठ, ज्ञान शास्त्रियों से भी, इसीलिए हो जा तू भी योगी ही।

सम्पूर्ण योगियों में भी,जो श्रृद्धा वान हो , मुझको हैं भजता।
वह है मुझको मान्य, परमप्रिय,मैं कभी न उनको तजता।।

इति छठवां अध्याय
मीरा परिहार ✍️💐

Language: Hindi
1 Like · 2 Comments · 218 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
ख़ामोश हर ज़ुबाँ पर
ख़ामोश हर ज़ुबाँ पर
Dr fauzia Naseem shad
तू भी इसां कहलाएगा
तू भी इसां कहलाएगा
Dinesh Kumar Gangwar
मेरी जान ही मेरी जान ले रही है
मेरी जान ही मेरी जान ले रही है
Hitanshu singh
ठहराव सुकून है, कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
ठहराव सुकून है, कभी कभी, थोड़ा ठहर जाना तुम।
Monika Verma
एक दिन का बचपन
एक दिन का बचपन
Kanchan Khanna
आईना
आईना
Sûrëkhâ
सागर की ओर
सागर की ओर
सुशील मिश्रा ' क्षितिज राज '
पहाड़ की सोच हम रखते हैं।
पहाड़ की सोच हम रखते हैं।
Neeraj Agarwal
मेरा सुकून
मेरा सुकून
Umesh Kumar Sharma
मातु शारदे वंदना
मातु शारदे वंदना
ओम प्रकाश श्रीवास्तव
3174.*पूर्णिका*
3174.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
!..................!
!..................!
शेखर सिंह
इंतिज़ार
इंतिज़ार
Shyam Sundar Subramanian
ଅତିଥି ର ବାସ୍ତବତା
ଅତିଥି ର ବାସ୍ତବତା
Bidyadhar Mantry
पकौड़े चाय ही बेचा करो अच्छा है जी।
पकौड़े चाय ही बेचा करो अच्छा है जी।
सत्य कुमार प्रेमी
अंतिम क्षण में अपना सर्वश्रेष्ठ दें।
अंतिम क्षण में अपना सर्वश्रेष्ठ दें।
Bimal Rajak
तेरी पल पल राह निहारु मैं,श्याम तू आने का नहीं लेता नाम, लगत
तेरी पल पल राह निहारु मैं,श्याम तू आने का नहीं लेता नाम, लगत
Vandna thakur
उपकार माईया का
उपकार माईया का
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
मेरा होकर मिलो
मेरा होकर मिलो
Mahetaru madhukar
कोशिश
कोशिश
विजय कुमार अग्रवाल
हाँ, नहीं आऊंगा अब कभी
हाँ, नहीं आऊंगा अब कभी
gurudeenverma198
हर कदम प्यासा रहा...,
हर कदम प्यासा रहा...,
Priya princess panwar
दादा की मूँछ
दादा की मूँछ
Dr Nisha nandini Bhartiya
प्रेम जीवन धन गया।
प्रेम जीवन धन गया।
Pt. Brajesh Kumar Nayak
तुम मेरी
तुम मेरी
हिमांशु Kulshrestha
Gatha ek naari ki
Gatha ek naari ki
Sonia Yadav
शब्द -शब्द था बोलता,
शब्द -शब्द था बोलता,
sushil sarna
बेहिसाब सवालों के तूफान।
बेहिसाब सवालों के तूफान।
Taj Mohammad
सरहद
सरहद
लक्ष्मी सिंह
ख़त आया तो यूँ लगता था,
ख़त आया तो यूँ लगता था,
महावीर उत्तरांचली • Mahavir Uttranchali
Loading...