श्रम-यज्ञ
हम तो अविरल बहने वाले,
हमको बस चलते जाना है।
प्रेम-दीप का एक शलभ बन,
बस तिल- तिल जलते जाना है।
जिस दिवस भी कंटकित पथ पे,
पग रुकेंगे परवश होकर।
चिर निद्रा में विश्राम करेंगे,
जीते जी ये जीवन खोकर।
पर ऐसा होगा नहीं प्रिये,
अथाह है अपना आत्मबल।
उलझेंगे लहरों से डटकर,
देखें कित्ता जग-जलधि का जल।
अपनी इस धुन में ही रहकर,
हमको बस बढ़ते जाना है।
धरती के धानी आंचल को,
इक सुखद स्वर्ग बनाना है।
हम तो अविरल बहने वाले,
हमको बस चलते जाना है।
झूठी मृग तृष्णा में फंसकर,
अपना जी ना व्यर्थ जलाते।
सुनहरे सपनों में धंसकर,
अपना पल न व्यर्थ गवाॅंते।
हम रण बाॅंकुरे हैं धरा के,
निज शीश हथेली पर रखते,
यौवन हो जाए स्वयं अमर,
जब बलिवेदी पर हम चढ़ते।
दुनिया की अग्नि -परीक्षा में,
कंचन- सा तपते जाना है।
हम यथार्थ में जीने वाले,
बस श्रम-यज्ञ करते जाना है।
हम तो अविरल बहने वाले,
हमको बस चलते जाना है।
—प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर (राजस्थान)