शरीक-ए-ग़म
उनकी आँखों के दरिया में हसरतों की कश्तियाँ डूबतीं – उभरतीं रहतीं है ,
उनके दिल में छुपे जज़्बों का मंज़र पेश
करतीं रहतीं हैं ,
सब्र की इंतिहा में बेकाबू हो अश्क की बूँदें बन बह निकलतीं हैं ,
ये बूँदे कभी सैलाब बन दामन भिगो जातीं है ,
न जाने क्यों ? उनके दर्दे दिल से ,
मेरे दिल में भी टीस सी उठती है ,
जो बेवजह मुझे बेचैन सी कर जाती है ,
शायद मेरे दिल से, उनके दिल तक,
कोई राह जाती है ,
जो मुझे उनका शरीक-ए-ग़म बनाती है।