वाराणसी की गलियां
कितनी गलियां हैं उसके शहर में ।
जब भी जाता हूं, भटक ही जाता हूं ।।
देर तक तलाशता हूं उसके घर को ।
पर ढूंढ़ नहीं पाता हूं ।।
फिर दिखाई दी अचानक से,
वो किसी चूड़ियों की दुकान पर।
और देख उसे में खुद को रोक नहीं पाता हूँ ।।
कितनी गलियां है उसके शहर में ।
जब भी जाता हूं, भटक ही जाता हूं ।।
उसकी चूड़ियों की खन खन और पायल की छम छम से,
वो कोई नृत्य करती मुझे दिखती है।
मैं देख उसे कोई गीत नया गाता हूं,
और उसके संग कितने ख्वाब सजाता हूं ।।
फिर थाम हाथों में हाथ दोनों,
किसी घाट पर घंटों बिताते है ।
सांझ का सूरज देख साथ में,
तब घर को लौट आता हूं ।।
कितनी गलियां है उसके शहर में ।
जब भी जाता हूं भटक ही जाता हूं ।।