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30 Mar 2020 · 1 min read

लेखनी

विधा-विधाता छंद

उठाकर लेखनी अपनी हृदय का प्यार लिखती हूँ|
विरह की वेदना संवेदना श्रंगार लिखती हूँ|

नहीं मैं पंत ,दिनकर ,कोकिला की बोल-सी प्यारी,
मगर जो भावना उर में वही उद्गार लिखती हूँ|

पहेली जिन्दगी मेरी सुलझती है नहीं मुझसे,
भरे जो दर्द घावों का उसे उपचार लिखती हूँ

करुण है वेदना दिल की जिसे मैं कह नही पाती,
सुलगती आग जो दिल में वही अंगार लिखती हूँ|

नयन से जो बहे हरपल विकल अहसास के मोती,
रुला दे चाँद तारों को वही रस धार लिखती हूँ|

परिन्दों ने बिखेरे बीज खुद अंकुर हुए कविता.
पलक जब बंद होती कल्पना के पार लिखती हूँ|

नमन है लेखनी तुमको पड़ी जो हाथ में मेरी,
उठा कर जब कभी चाहा तुझे हर बार लिखती हूँ|

उठायी लेखनी जब से मिली सच्ची खुशी तब से,
दिया आशीष ये रब ने उन्हें आभार लिखती हूँ|
•लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली

11 Likes · 3 Comments · 320 Views
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