लार्ड मैकाले : एक दूसरा किंतु क्रांतिकारी पहलू
अभी तक आपने लार्ड थॉमस बैबिंग्टन मैकाले(25 अक्टूबर 1800-28 दिसंबर 1859) को भारत में ‘नौकर बनाने वाला कारखाना’ खोलने वाले के तौर पर जाना जाता है. हमें अब तक उनके प्रति हिकारत भरा नजरिया विकसित करने के इरादे से बताया गया कि ‘‘उन्होंने भारतीय दंड विधान (आईपीसी) और पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली शुरू कर भारत के लोगों को मानसिक गुलाम बनाने की शुरुआत की, हमारी संस्कृति पर कुठाराघात किया जिसका नतीजा हम आज तक भुगत रहे हैं. उन्होंने भारत को कमजोर करने के इरादे से देश की शिक्षा नीति और अन्य कानून बनाए जबकि इसके पहले भारत विश्व गुरु था.’’ यहां मैं यह बताना जरूरी समझता हूं कि जब मैं कक्षा-आठ का विद्यार्थी था, तब छैमाही की परीक्षा में हिंदी के प्रश्नपत्र में ‘भारत की शिक्षा प्रणाली’ विषय पर निबंध लिखने को आया था. उस वक्त मैंने इस निबंध में एक पैराग्राफ पर लार्ड मैकाले के बारे में जीभर कर भला-बुरा लिखा था. इस पर मेरे हिंदी शिक्षक डी.आर. सिंगौर जी ने मुङो शाबाशी दी थी. उस वक्त मुङो इतनी बारीक राजनीतिक-ऐतिहासिक- सामाजिक समझ नहीं थी, जो शिक्षकों ने पढ़ाया था, उसी के मुताबिक लिखा था. खैर…
आपको मालूम होना चाहिए कि लार्ड थॉमस बैबिंग्टन मैकाले सन 1834 से 1838 तक भारत की सुप्रीम काउंसिल में लॉ मेंबर तथा लॉ कमीशन के मुखिया रहे. इसी दौरान उन्होंने देश का प्रसिद्ध दंड विधान ग्रंथ अर्थात ‘दी इंडियन पीनल कोड(आईपीसी)’ की पांडुलिपि तैयार की थी. इसी के साथ ही एक और क्रांतिकारी कार्य भारत में आधुनिक विज्ञान-तर्कसम्मत शिक्षा प्रणाली की शुरुआत की. इसे हमारे देश के मनुवादी विद्वतजन शुरू से ही नौकर बनाने का कारखाना तैयार करनेवाला बताते आए हैं. बेशक उनकी शिक्षा प्रणाली और दंडविधान संहिता में कुछ कमियां हो सकती हैं तो उन्हें ठीक किया जा सकता है लेकिन उन्हें केवल और केवल खलनायक ठहराते हुए निंदित करना गलत है. लेकिन उनकी जो भी आलोचना होती है, वह केवल अर्धसत्य और केवल एक पहलू है. अगर हम निष्पक्ष रूप से उनके योगदान का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि अंग्रेजों की प्लासी विजय के बाद भारत में लार्ड मैकाले का आगमन शूद्र-अतिशूद्रों और भारतीय नारियों के लिए शुभ साबित हुआ. मैकाले ने ही भारत में हिंदू साम्राज्यवाद अर्थात जड़ सामाजिक व्यवस्था से संघर्ष करने का मार्ग तैयार किया. अगर उन्होंने कानून की नजरों में सबको एक बराबर करने का यह कार्य नहीं किया होता तो शूद्र-अतिशूद्रों और महिलाओं को विभिन्न क्षेत्रों में योग्यता प्रदर्शन करने और आगे बढ़ने का कोई अवसर नहीं मिलता. जिन हिंदू भगवानों और शास्त्रों का हवाला देकर असमानतापूर्ण अर्थात गैरबराबरी वाली वर्ण-व्यवस्था को विकसित और संरक्षित किया गया था, मैकाले की आईपीसी ने एक झटके में उन्हें झूठा साबित कर दिया था. सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि वर्ण-व्यवस्था के द्वारा हिंदू-साम्राज्यवाद के सुविधाभोगी वर्ग के हाथ शक्ति के समस्त स्रोतों को हमेशा के लिए आरक्षित करने का जो अर्थशास्त्र अर्थात तौर-तरीका विकसित किया गया था, उसे आईपीसी ने एक झटके में खारिज कर दिया. सदियों से बंद पड़े जिन स्रोतों खासकर शिक्षा को मैकाले ने वर्ण-व्यवस्था के चलते वंचित किए गए जाति समूहों और महिलाओं के लिए खोल तो दिया लेकिन हिंदू साम्राज्यवाद ने उन्हें शिक्षा व धन-बल से इतना कमजोर बना दिया था कि वे इन प्रदत अवसरों का लाभ उठाने की स्थित में ही नहीं रहे थे. इसके लिए उन्हें जरूरत थी विशेष अवसर दिए जाने की.
हालांकि मैकाले की आईपीसी ने वर्णवादी अर्थशास्त्र को ध्वस्त कर कागज पर जो समान अवसर सुलभ कराया, उसका लाभ भले ही तत्काल मूलनिवासी समाज अर्थात वंचित वर्ग नहीं उठा पाया, किंतु आईपीसी के समतावादी कानून के जरिये कुछ बहुजन नायकों ने (कठिनाई से ही सही) शिक्षा अवसर का लाभ उठाकर हिंदू आरक्षण की काट के लिए खुद को विचारों से लैस किया, योग्य बनाया.
ऐसे संग्रामी बहुजन नायकों के शिरोमणि बने महात्मा ज्योतिबा फुले. 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जिन दिनों गरीब-सर्वहाराओं की मुक्ति के उपायों का तानाबाना अर्थात खाका तैयार करने में कार्ल मार्क्स जुटे थे, उन्हीं दिनों यूरोप से हजारों मील दूर भारत के पूना शहर में शूद्र फुले जातिगत व्यवस्था के तहत अधिकारों से वंचित किए गए सर्वहाराओं की मुक्ति के लिए अपनी सर्वशक्ति लगा रहे थे. जब सामाजिक क्र ांति के पितामह महात्मा फुले ने सामाजिक दुर्दशा को दूर करने की दिशा में खुद को समर्पित किया तो उन्हें बाधा के रूप में नजर आया- हिंदू आरक्षण अर्थातवर्ण-व्यवस्था. उन्होंने हिंदू आरक्षण को सामाजिक परिवर्तन की बाधा, मूलनिवासियों की दुर्दशा और इस तरह समूचे देश के पतन का मूल कारण समझ उससे मुकाबले के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था को जन्म देने का मन बनाया. उन्होंने मार्क्स को बिना पढ़े वर्ग-संघर्ष के सूत्रीकरण के लिए जाति/उपजाति के कई हजार जातियों में बंटे भारतीय समाज को ‘आर्य’ और ‘आर्येतर’ दो भागों में बांटने का बौद्धिक उपक्र म तो चलाया ही, इससे भी आगे बढ़कर कांटे से कांटा निकालने की जो परिकल्पना की, वह आरक्षण रूपी ‘औजार’ के रूप में 1873 में उनकी अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ के पन्नों से निकलकर जनता के बीच आई.
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मूलनिवासी शूद्र-अतिशूद्रों की दशा में बदलाव के लिए महात्मा फुले ने ‘आरक्षण’ नामक जिस औजार का आविष्कार किया, उसे 26 जुलाई 1902 को कार्य रूप में परिणित किया कोल्हापुर रियासत के शूद्र राजा शाहूजी महाराज ने. लेकिन तत्कालीन मद्रास मौजूदा तमिलनाडु के रामासामी पेरियार ने तो हिंदू आरक्षण के ध्वंस और बहुजनवादी आरक्षण के लिए संघर्ष चलाकर दक्षिण भारत का इतिहास ही बदल दिया.‘दक्षिण एशिया के सुकरात’ और ‘वाइकोम के वीर’ जैसे खिताबों से नवाजे गए ‘थान्थई’ रामासामी पेरियार ने हिंदू आरक्षण में संपदा, संसाधनों और मानवीय आधिकारों से वंचित किए गए लोगों के लिए जो संघर्ष चलाया, उससे आर्यवादी सत्ता का विनाश और तमाम पिछड़े वर्गो अर्थात मूलनिवासियों (मौजूदा अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग) को मानवीय अधिकार प्राप्त हुआ. मद्रास प्रांत में उनकी जस्टिस पार्टी के तत्वावधान में 27 दिसंबर 1929 को पिछड़े वर्गो के लिए सरकारी नौकरियों में 70 प्रतिशत भागीदारी का सबसे पहले अध्यादेश जारी हुआ. यह अध्यादेश तमिलनाडु के इतिहास में ‘कम्युनल जी.ओ.’ के रूप में दर्ज हुआ. उसमें सभी जाति /धर्मो के लोगों के लिए उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान था. भारत में कानूनन आरक्षण की वह पहली व्यवस्था थी.
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अगर भारत का इतिहास आरक्षण पर संघर्ष का इतिहास है तो मानना ही पड़ेगा कि डॉ. आंबेडकर भारतीय इतिहास के महानतम नायक रहे. उनका संपूर्ण जीवन ही इतिहास निर्माण के संघर्ष की महागाथा है. उन्होंने हिंदू आरक्षण(वर्ण व्यवस्था) के खिलाफ स्वयं असाधारण रूप से सफल संग्राम चलाया ही, इसके लिए वैचारिक रूप से वर्ण-व्यवस्था के वंचितों को शिक्षित करने के लिए जो लेखन किया, वह संपूर्ण भारतीय मनीषों के चिंतन पर भारी पड़ता है. वैदिकों(मनुवादियों) ने मूलनिवासियों पर हिंदू आरक्षण शस्त्र (हथियार) नहीं, शास्त्रों(कथित धर्मग्रंथों) के जोर पर थोपा था.
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शास्त्रों (धर्मग्रंथों) के कुचक्रों के कारण ही मूलनिवासी अर्थात मौजूदा पिछड़ा वर्ग मानसिक रूप से भी दैविक दास में परिणित हो गया. नतीजतन वह कर्म-शुद्धता का स्वेच्छा से अनुपालन करने वाला बनकर संपदा-संसाधनों पर हिंदू साम्राज्यवादियों(उच्चवर्णियों) के एकाधिकार को दैविक अधिकार समझकर उनका प्रतिरोध करने से दूर रहा, वहीं अपनी दुर्दशा को ईश्वर का दंड और पिछले जन्मों का फल मानकर चुपचाप पशुवत जीवन ङोलता रहा. डॉ. आंबेडकर ने कुशल मनोचिकित्सक की भांति मूलनिवासियों के मानसिक रोग (दैविक दासत्व) को दूर करने के लिए भरपूर साहित्य रचा. चूंकि हिंदू धर्म में रहते हुए शूद्र-अतिशूद्र अपने हकों को पाने के संघर्ष का नैतिक अधिकार खो चुके थे, इसलिए उन्होंने हिंदू धर्म का परित्याग कर उस धर्म को अपनाने का उज्जवल उदाहरण पेश किया जिसमे मानवीय मर्यादा के साथ रुचि अनुकूल पेशे चुनने का अधिकार सबके लिए सामान रूप से सुलभ रहा है. एक स्कॉलर अर्थात विद्वान के साथ-साथ राजनेता आंबेडकर का संघर्ष उन्हें भारतीय इतिहास के ‘श्रेष्ठतम नायक’ का दर्जा प्रदान करता है.
बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि भारत में ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार’ के प्रणोता बाल गंगाधर तिलक और उनके बंधु-बांधवों का कथित स्वतंत्रता संग्राम वास्तव में ‘हिंदूराज’ के लिए संघर्ष था. यह मेरा भी मानना है. अगर स्वतंत्रता संग्राम का लक्ष्य वास्तव में हिंदूराज था तो यह मानना पड़ेगा कि आज के साम्राज्यवाद विरोधियों के स्वतंत्रता सेनानी पुरखे पुन: उस आरक्षण के लिए ही संघर्ष कर रहे थे जो आईपीसी लागू होने के पूर्व उन्हें हिंदू आरक्षण उर्फ वर्ण-व्यवस्था के तौर पर हासिल था. लेकिन एक तरफ सवर्ण जहां हिंदूराज के लिए संघर्ष कर रहे थे, वहीं उनके प्रबल विरोध के बीच डॉ.आंबेडकर का साइमन कमीशन के समक्ष अपना बयान रखने से लेकर लंदन में आयोजित गोलमेज बैठकों, पूना पैक्ट और अंग्रेजों के अंतरवर्तीकालीन सरकार में लेबर मेंबर बनने तक उनका सफर आरक्षण पर संघर्ष के एकल प्रयास की सर्वोच्च मिसाल है. सचमुच भारत का स्वतंत्रता संग्राम ‘आरक्षण के मुद्दे पर आम्बेडकर बनाम शेष भारत के संघर्ष’ का ही इतिहास है.
मित्रों! उपरोक्त तथ्यों के आईने में हम निम्न शंकाएं आपके समक्ष रख रहे हैं-
1-अगर अंगेजों ने आईपीसी के द्वारा कानून की नजरों में सबको एक बराबर तथा शूद्र-अतिशूद्रों और महिलाओं को भी शिक्षा के अधिकार से लैस नहीं किया होता, क्या ज्योतिराव फुले, सावित्री फुले, फातिमा शेख, शाहूजी, पेरियार, बाबासाहब डॉ. आंबेडकर इत्यादि जैसे बहुजन नायकों का उदय हो पाता?
2-अगर भारत का इतिहास आरक्षण पर केंद्रित संघर्ष का इतिहास है तो क्या यह बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती कि डॉ. आंबेडकर भारतीय इतिहास के सबसे बड़े नायक रहे ?
3- ब्रिटिश राज के दौरान गांधीवादी, राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी खेमे के नेता जहां ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद’ के खिलाफ संघर्षरत थे, वहीं डॉ. आंबेडकर ने बहुजनों को ‘हिंदू साम्राज्यवाद’ से मुक्ति दिलाने में सर्वशक्ति लगाया. तब साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई में शिरकत न करने के लिए मार्क्सवादियों ने उन्हें ब्रिटिश डॉग, अंग्रेजों का दलाल इत्यादि कहकर धिक्कारा था. अगर आंबेडकर उस समय मार्क्सवादियों के बहकावे में आकर ‘साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई’ में ही अपनी सारी ताकत झोंक दिए होते तब आज के बहुजन विशेषकर दलित समाज का चित्र कैसा होता?
4-आज जबकि देश में शक्ति के सभी स्रोतों पर 21 वीं सदी के साम्राज्यवाद विरोधियों के सजातियों का 80-85 प्रतिशत कब्जा है, बहुजनों को अपनी ऊर्जा अदृश्य साम्राज्यवाद विरोध में लगानी चाहिए या शक्तिशाली हिंदू साम्राज्यवादियों से अपनी हिस्सेदारी हासिल करने में ? यह सोचने की जरूरत है मेरे भाई.
5-1942-45 तक कम्युनिस्ट जर्मनी और जापान के सहयोग से ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सक्रिय सुभाष बोस और उनके अनुयायियों के कट्टर विरोधी रहे. उन्होंने अंग्रेजों के कट्टर विरोधी नेताजी सुभाष को जयचंद भी कहने में संकोच नहीं किया. ऐसा कर एक तरह से उन्होंने खुद को साम्राज्यवाद समर्थकों की पंक्ति में खड़ा कर लिया था. बहरहाल वर्षो बाद उन्हें अपनी उस ऐतिहासिक भूल का एहसास हुआ और नेताजी को देशद्रोही कहने के लिए माफी भी मांगा किंतु भारत रत्न डॉ. आंबेडकर को ब्रिटिश डॉग कहने के लिए माफी नहीं मांगा. आखिर क्यों? अंत में मेरा एक अहम निवेदन यह है कि बाबासाहब आंबेडकर के साहित्य का न केवल अनुसूचित जाति के लोगों को बल्कि ओबीसी के लोगों को भी अघ्ययन करना चाहिए. मैं तो यहां तक भी कहना चाहूंगा कि संपूर्ण देशहित में सामान्य वर्ग के लोगों को भी बाबासाहब को समझने की कोशिश करनी चाहिए. मैं स्वयं ओबीसी से हूं. एक वक्त वह भी था जब मैं एकदम दकियानूसी था. लेकिन कालांतर में बाबासाहब आंबेडकर को पढ़ने के बाद मुझमें तार्किकता का विकास हुआ और अब मैं किसी बात को तार्किकता की कसौटी पर कसने के बाद ही मानता हूं.
28 जुलाई 2020 मंगलवार