रोटी की क़ीमत!
दिन भर तपता रहा धूप में,
रात बिताई बारूद में झुलसकर,
फिर भी नसीब ना हुई जिसे,
दो वक्त की रोटी और नमक,
उस से पूछो रोटी की क़ीमत,
जिसने रोटी के लिए देह गलाई,
फिर भी जिसका चूल्हा रोया,
बिन रोटी के रात भर,
सुबक सुबक…..
बड़े घर से बासी रोटी फेंकी गई,
कुत्तों की तो जैसे दावत हुई,
नोंच-नोंच बटोर-बटोर खूब खाए,
अपने पूरे परिवार को बुलाकर लाए,
रोटी के लिए हुई मारामारी,
रोटी थी इतनी कि सब ने खाई,
भर पेट मिली रोटी सबको,
भर पेट खा गहरी नींद में अलसाए सोए,
दुबक दुबक……
और वहीं दूर कहीं रोटी के लिए तरसा,
रात भर करवट रहा रह रह कर बदलता,
दिन भर की थकावट भी काम ना आई,
भूखे पेट नींद कहाँ आँखों में भला आती,
पानी भी कितना पाता बेचारा पी,
पेट को तो रोटी की दरकार थी,
रात भर पेट से आवाज़ अज़ीब आती रही,
गुमर गुमर……..
फिर अगले दिन भर झुलसा धूप में,
इस आस में कि आज मिलेगी रोटी उसे,
रात को भी खटता रहा भूल घर-बार,
सोचा कि भर पेट खाएँगे आज सपरिवार,
मजूरी की क़ीमत जब लगायी गई,
दो जून की रोटी भी उस से ना नसीब हुई,
बिन रोटी फिर लेट गया बिस्तर पर, करता रहा,
इधर उधर…….
भूख का सिलसिला बढ़ता गया,
लाचारी भी साथ-साथ बढ़ती गई,
परिवार को पालने में स्वयं बिन खाए,
झोंकता रहा अपना तन बारम्बार,
साँसें भी अब तो जवाब देने लगी,
मौत के समय थी तो बस एक हंसी चेहरे पे,
शायद अब चैन से सो सके और मिले उसे,
आराम विश्राम…….