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28 Mar 2024 · 1 min read

रे कागा

रे कागा,
पहले बहुत बतियाते थे
काँव… काँव… काँव,
कभी नीम-पीपल के ऊपर
कभी छुप जाते थे छाँव,
अब हो गए तेरे दर्शन दुर्लभ
क्यों छोड़ चला तू गॉंव,
तरस गया मन सुनने को
तेरा कर्कश काँव- काँव।

रे कागा,
फिर से आजा मेरे गाँव….

डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
भारत भूषण सम्मान प्राप्त।

Language: Hindi
3 Likes · 3 Comments · 133 Views
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