रे कागा
रे कागा,
पहले बहुत बतियाते थे
काँव… काँव… काँव,
कभी नीम-पीपल के ऊपर
कभी छुप जाते थे छाँव,
अब हो गए तेरे दर्शन दुर्लभ
क्यों छोड़ चला तू गॉंव,
तरस गया मन सुनने को
तेरा कर्कश काँव- काँव।
रे कागा,
फिर से आजा मेरे गाँव….
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
भारत भूषण सम्मान प्राप्त।