मौन थी वो
कौन थी वो
सब कुछ जान कर भी
मौन थी वो
प्यार जताना भी नहीं
चाहती थीं वो
चाह कर भी प्रेम छिपाना नहीं
जानती थी वो
कसूर कातिल मयकशी
नजरों का था या फिर
दिल की धड़कनों का
जो धड़कती थी बेहद तीव्र
समुद्री तूफान सी गति से
बढा देती थी टिका हुआ
लाल लहू रूधिरवाहिनी
का रक्तचाप अकस्मात
जब आ टपकती थी
नजरों के समक्ष
बलखाती पतली कमरिया
मटकाती हुई
घुँघरू सी खनकती
हँसी से मोतियों सी
कतारबद्ध दाँतों की
बत्तीसी दिखाती हुई
और फिर भाग जाती
जिह्वा को दिखाते और
दाँतों तले होठों को दबाते हुए
मंद मंद मद्धिम मद्धिम
मधुर मुस्कान बिखेरती
और मैं असहाय स्थिर सा
प्रेमभाव रत शून्य तुल्य
टकटकी लगाए उस छोर
बुत समान रह जाता खड़ा
निज आँचल में झोली फैलाए
समेटेने.के लिए प्रेयसी की
बिखरी हुई मधुमयी सी
मुस्कराहट के विखण्डों को
सुखविंद्र सिंह मनसीरत