“सोच खा जाती हैं”
निश्चिंतता का कवच चीर,
ये समझ, कहां से आ जाती है,
मुझे सोच मेरी ही खा जाती हैं ;
मुझे सोच मेरी ही खा जाती हैं।
हो किसी से जब मधुर संवाद,
स्नेहिल हृदय जमे विपुल गाद,
जन्म लेती इच्छाएं जब मन; में
ये काली घटा सी छा जाती हैं।
मुझे सोच मेरी ही खा जाती हैं ।।
कलेजा छलनी सा लगता है,
बैठा मन फिर न उठता है,
संघर्ष करती, राह बनाती;
आती खुशी भरमा जाती है।
मुझे सोच मेरी ही खा जाती हैं।।
चहुंदिस प्रहारी अंधियारी,
विजित कभी, कभी मैं हारी,
दूर टिमकती आस ज्योति को;
आंधी बन बुझा जाती हैं।
मुझे सोच मेरी ही खा जाती हैं ।।
काम – काज सब छिन्न- भिन्न,
मन हो जाता खिन्न – खिन्न,
दिन खा जाती, रात खा जाती,
घड़ी मेरी पगला जाती है।
मुझे सोच मेरी ही खा जाती हैं।।
मन सब पर करता है भरोसा,
मस्तिष्क परखता, टटोलता ,
मन – मस्तिष्क में अंतर्द्वंद्व की
बिगुल नई बजा जा जाती हैं।
मुझे सोच मेरी ही खा जाती हैं।।
ओसमणी साहु “ओश” (छत्तीसगढ़