माँ
माँ
माँ ही नारायणी माँ ही लक्ष्मी माँ ही करमवीर हैं।
माँ के आगे चलती ना किसी की एक हैं ।
मुसीबत , विपदा कोई आ जाएँ माँ बन के चण्डी रण में कूद जाएँ।
माँ से ही बच्चों का संसार हैं
माँ के बिना सब सूना बेकार हैं।
माँ कहीं तो द्रवित सी मूरत हैं
और कहीं कहीं मज़बूत शक्ति वर्धक हैं।
माँ की निग़ेबानी में हर बच्चे को सुकून हैं।
माँ की आँखों में दूर तक खामोशी हैं
जो भेद जाती हैं कई ज़ख्मों को
जाने क्या क्या नहीं देखा हैं इन आँखों ने ,
एक शिशु को गर्भकाल से अपने अंदर समेटे हुए
उसका अनंत विस्तार चाहती हैं माँ ।
सब कुछ त्याग कर , दर्द को अंगीकार करना , ये माँ की ही विशेषता अनुरूप हैं
वो वेदना ओर गरल का घूँट
सिर्फ़ माँ के ही हिस्से क्यूँ आया हैं।
क्यूँ नहीं चीत्कार कर लेती वो भी एक दिन
क्यूँ नहीं शंखनाद बजा क़र मुक्ति पा लेती वो भी एक दिन ।
कितना कुछ समेटे हुए भी वो बस एक कोना ही चाहती हैं
जहाँ उसके प्रति सच्चे भाव ओर प्रेम हो वो भी एक ऐसा ही घरोंदा चाहती हैं।
जहाँ सिर्फ़ अपेक्षाएँ ही ना हो वरन उसके लिए भी बच्चे कुछ करें
वो भी ऐसा ही एक दिन चाहती हैं
जहाँ ममतामयी आँखो में डर ना हो
जहाँ सिर्फ़ रात का सन्नाटा ना हो
दिन की वो उजली किरण हो जिसकी शुभ्रता में नहाकर वो उन्मुक्त हो सके ।
जीवन का कोई भी पड़ाव हो
माँ से किसी का भी ना दुराव हो
माँ की व्यथा जो समझ सकें
जीवन उन्ही का सार्थक हो सकें।
धन्यवाद
डॉ. अर्चना मिश्रा