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23 Apr 2024 · 1 min read

एक छाया

एकदम से याद आया,
वो तो थी एक छाया,
सिहर उठी मेरी काया,
धीरे–धीरे भय था आया।

गुमनाम-सा एक मेहमान-सा,
बिच राह मे खड़ा था पाया,
अँधेरे मे देख ना पाया,
एक धोखे में भाग था आया।

बंद हो गये थे कपाट कानों के,
रोगटे खड़े थे हाथों को,
घबरा कर आंखे मीचे,
खूब तेज़ी से दौड़ लगाया।

एक दुर्घटना घटी थी पहले,
दूसरी मुझसे घट गये कैसे ?
मदद की गुहार जो लगाया,
जान बचा अपनी भागा।

क्या फिर भी वह जिंदा है ?
या परछाई बन कर आयी,
सुनों मेरे भाई ! सुनों मेरे भाई !
आज मै था तो कल तेरी आयी।

सड़क दुर्घटना होते है निस दिन,
देख कर अनजान न बनना,
कदम उठाना मदद देकर,
मानवता अपनाना सोच समझकर।

रचनाकार
बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर।

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