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22 Dec 2018 · 1 min read

बूझती आँखें

थी कोटर के ओट से झांक रही वो।
थे रहे जब सब घर में चैन से सो।।
सबसे छुपकर नयन में बार-बार नीर भरकर।
रुन्दे कण्ठ से बिल्कुल सिसक-सिसक कर।।
ऐसा रहा था कि लग मानों सहस्त्रों ज्वालामुखी हों एक साथ फूटने वाला।
हों भी क्यों न रास्ता ही ऐसा था जहां से भला क्या आए कोई रुठने वाला।।
अरसों तक कम्बख्त देते आ रही थी मन को बोलकर दिलासा।
एक बच्चे को अरसों तक मिलने की हो जैसे खिलौने की आशा।।
दिलासा देती जा रही थी हर -बार यों बेचारी।
अर्सों से करती ही रही थी करवाचौथ की तैयारी ।।
करती भी क्या बेचारी पति की माँ के प्राण थे जो बचाने।
और बच्चों की हर जिम्मेदारी भी थे अब उसके कंधे को उठाने।।
सच्चाई तो यह थी कि डूब चुका था उसके सिन्दुर का सूरज।
पर जीवित रखना था उसको उसे उस मां के जीवन में उसका नयननीरज।।

Language: Hindi
234 Views
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