बिगना: दिलीप कुमार पाठक
शिक्षक दिवस पर प्रस्तुत है अपनी एक कहानी जो बिहार की तत्कालीन ग्रामीण शैक्षिक परदृश्य को प्रकट करती प्रतीत होगी। थोड़ी लम्बी है, अतः धीरज धर कर पढ़ेंगे। यह कहानी कैमुर कथा प्रतियोगिता से पुरस्कृत है।
बिगना
: दिलीप कुमार पाठक
धीरज का मन अनमना हो रहा था। उसने सोंचा, “चलूँ पिताजी के स्कूल में। ” बचपन में वह अपने पिता के साथ बराबर जाया करता था। मास्टर के बेटा का जो रॉब-रुआब होता, वह झाड़ता था, हमउम्र छात्रों पर। छात्र दबे रहते थे, ” मास्टर के लड़का है। ” कुछ मिले हुए रहते, कुछ जो उससे दबंग होते, अकड़े रहते। तब वह उनको काबू में करने की दवा किसी-न-किसी बहाने से अपने पिता के द्वारा पिलवाता और उन दबंगों पर भी अपना दबदबा कायम करता।
मगर वह सब उसकी बचपन की बातें हैं। अब उसके पास उनकी बस स्मृतियाँ रह गयी हैं।
पतझड़ का मौसम था। वह अपने पिता के विद्यालय के गाँव में पहुँचा। खेत-बधार में हरियाली व्याप्त थी। जजात लहलहा रही थी, मानो स्वागत गान गा रही हो, किसी नवागन्तुक को पाकर। पीपल-बड़ इत्यादि पेंड़ों में कोमल-कोमल पत्तियाँ उग आयी थीं। आम मञ्जराकर बिसुआ के फल देने लगे थे। महुआ टपक रहा था, जिससे महुए की गन्ध सर्वत्र फ़ैल रही थी। अगोरा अगोर रहा था, टपकते महुओं को। कोयल कुक रही थी, कौए काँव-काँव कर रहे थे। टिटिहमां टिहटिहा रही थी। तरह-तरह के पंछी चहचहा रहे थे।
एक चरवाहा भैंस की पीठ पर बैठा राग अलाप रहा था, “आज चइत हम गैबई हे रामा, ए ही ठंइएँ। बगुला बकरी चराबई ए रामा, ए ही ठंइएँ।।”
“कहाँ जयब बाबु ?” एक बुढ़ा बाबा लाठी के सहारे खड़ा होकर न जाने कबसे करीब आता हुआ पाकर उसे निहार रहा था, पास आने पर पूछा था।
” जी, जमुआइन ”
” जमुआइन त एही हब s……… किनका किहाँ ?”
” यहाँ जो स्कुल है न, वहीं जाना है। ”
” नया माहटर बहाल का होलिअइ हे। ”
” न नहीं, यहाँ जो शिक्षक हैं न, वे मेरे पिताजी हैं। ”
” कउन, सतनरैन माहटर जी ?”
” हाँ ”
” छेमा करम, छेमा करम सरकार, अपने तो हमनी के बराह्मण देवता ही, एतना देरी खड़ा रखे के पाप हो गेलक, छेमा करम, पाँव लगइत ही। ”
“धीरज तो एकदम अकचका गया। भौंचक सा बुढ़ा बाबा को चुपचाप देखता रहा। बुढ़ा बाबा बस बुढ़ा दीख रहे थे।
“अरे गरीबना …………….”
एक लड़का और कुछ औरतें आलू के खेत को बकुआ रही थीं। लड़का बकुआ लेकर ही दौड़ता हुआ आया।
” माहटर साहेब के लइका हथी, जाहीं, जाके छोड़ आहीं इस्कुलिया तक। ”
वह चलने लगा।
“आउ सुन, उधरे से घरे चल जइहें …………………”
थोड़ा रूककर बूढ़े बाबा ने इसारा किया।
” आउ समझले न …………………”
” हाँ ”
रास्ते में उसने बताया कि वह शहर जाने वाला है, औरंगाबाद, अपने मामा के यहाँ । वहाँ उसके मामा का होटल है। वहाँ वह छककर पकौड़ी और मिठाई खाने जा रहा है। उसको वहाँ नए-नए कपड़े मिलेंगे। अब वह वहीं रहेगा। वहाँ उसको उसकी माँ भेज रही है।
रास्ते में कुछ और लोग मिले, ” कउन हैं रे ?”
” ई माहटर साहेब के लइका हथी “जबाब देते हुए गरीबन धीरज को विद्यालय तक पहुँचा दिया। विद्यालय से पहाड़ा पढ़ने की आवाज आ रही थी।
” ए ही इस्कुल हब s ………”
” चलो अन्दर तक ”
” न हम न ”
” क्यों ?”
“बस अइसहीं ”
” अरे भाई चलो न ”
” न माहटर साहेब मारतन”
” किसलिए ”
” हम इस्कुल न न आबs हिअइ ”
और वह दौड़ता हुआ अपने घर की तरफ भागा।
धीरज उसे देखता रहा और वह गाँव की गलियों में ओझल हो गया।
विद्यालय मिट्टी के गिलाबे पर ईंट का बना हुआ था। खपड़ा से छाया हुआ था। पास ही गाँव का आहर था। बगल में शोरीदार बरगद का एक विस्तृत फैलाव था। जहाँ चार-पाँच ग्रामीण बैठे हुए वार्ता कर रहे थे। कभी हँसते कभी गंभीर होते थे।
धीरज विद्यालय के अन्दर सकुचाते हुए झाँका। उसके पिता सत्यनारायण मिश्र सफ़ेद होते बोर्ड (श्यामपट ) के नज़दीक एक कुर्सी पर बैठे दिखे। टेबुल पर किसी छात्र द्वारा हस्तकला में विद्यालय को भेंट दिया गया छींटदार कपड़े का डस्टर था। खल्ली थी, रजिस्टर थे और थीं तीन-चार खजूर की छड़ियाँ।
एक छात्र खड़ा हो पहाड़ा पढ़ रहा था और बोर्ड पर लिख रहा था। सभी छात्र चटाई पर बैठे-बैठे स्लेट पर पिलसिट ( स्लेट की खल्ली ) चला रहे थे और पहाड़ा दुहरा रहे थे एकदम संगीतमय अंदाज में।
धीरज ने बिना पूछे अन्दर प्रवेश लिया। एक छात्र जिसका ध्यान उसपर पड़ा, तुरन्त खड़ा हो गया। शायद समझा हो कोई निरीक्षक आये हैं। उसके देखा-देखी सभी छात्र खड़े हो गए। वह विल्कुल सकपका गया। उस वक्त उसके पिता भी उठ खड़े हुए थे। फिर उन्होंने उसे पहचानकर छात्रों को बैठने के लिए कहा।
वह अपने पिता सत्यनारायण मिश्र की तरफ बढ़ा। इधर कुछ कारणों के चलते उनसे उसका कुछ मनमुटाव भी चल रहा है। संवादहीनता की सी स्थिति बनी हुई है। ऐसे वे लालायित रहते हैं कि वह उनसे फिर संवाद स्थापित करे। मगर वह एकदम …………।
उनके नजदीक जा, जो शिष्टाचार स्वरूप अभिवादन प्रचलित है, उन्हें अभिवादन किया।
” कहो ………क़ुछ ………………एकाएक …………….”
” न …… बस मन नहीं लग रहा था, सोंचा ………………. । ”
” चलो ठीक है, रास्ते में कोई दिक्कत तो नहीं हुई। ”
” नहीं, गया से मदनपुर और मदनपुर से पूछते-पाछते ………”
गरीबन फूल-काँसे के लोटे में मट्ठा और गुड़ का सरबत और एक गिलास लेकर आ गया। मुँह-हाथ धोकर सरबत पीया। सरबत पीते ही रास्ते की थकान जाती रही।
” क्यों गरीबन आज पढ़ने नहीं आया रे ?”
” ज् ज जी ” डरते हुए, ” आलू बकुआवईत हली ”
” और घर में कोई नहीं है ”
” जी बाबा कहलथी कि ……….”
” अच्छा इस वक्त से आ जाओ ”
” जी बाबा ……………”
” बाबा को मैं कह दूँगा ”
” जी अच्छे ”
मगर वह गया तो गया ही रह गया, वापस नहीं आया। धीरज के पिता धीरज से बोले, ” इधर चावल मिलने लगा है, तब इतनी उपस्थिति भी है। नहीं तो उधर कुछ दिन पहले चार-पाँच लड़के भी आ गए तो बहुत। ”
पहाड़ा का पाठ ख़त्म हो गया था। अब छात्रों ने जो अपनी स्लेट में लिखा था, वह जाँच करवाने के लिए ला रहे थे।
” अरे-अरे ! ऐसे तो भीड़ जमा दोगे, मुनेटर, सभी का स्लेट तसीलकर लाओ। ” धीरज के पिता ने कहा।
स्लेटें मुनेटर के द्वारा एक पर एक रखी जाने लगीं। देखते-देखते स्लेटों की एक मीनार बन गयी। धीरज भी कुछ स्लेटें ले जाँच करने लगा।
” यह किसकी स्लेट है ?”
सभी छात्र देखने लगे। उनमें से एक छात्र उठा, अस्त-व्यस्त कपड़े में था। शर्ट में बस एक बटन थी, निकला हुआ लेदा साफ़ दीखता था। पैन्ट को डाँड़ा से बाँधे था। जिस पैन्ट की खिड़की खुली थी। नाक सिंकोड़ते हुए नजदीक आकर बोला, ” जी हमल ”
” आपका है ? ” सभी लड़के हँस पड़े। मानो धीरज कोई अजूबा सवाल दागा हो। वह छात्र सामान्य ही रहा।
” जी हाँ ”
” आपका नाम ”
” बिगन, बिगन कुमाल ”
” आइए बिगन कुमार जी और पास आइए, बैठिए। ”
” वह निःसंकोच धीरज के पास आकर बैठ गया। सभी लड़के हँसते रहे।
” तब बिगन कुमार जी, अभी तक आप कितने तक पहाड़ा जानते हैं। ”
” जी …………… एक छे अथका तक, आउ पन्दलह का ”
” पन्द्रह का ………? ” धीरज अकचकाया।
” सुना देहीं रे, सुना देहीं बिगना ” एक लड़का कड़कर बोला, मानो वही सिखाया हो।
” पन्दलह का पन्दलह, पन्दलह दुनी तीछ, तिओ पैंतालिछ, चऊँके छाथ, दाम पछ्तल, छक्का नब्बे, छते पचोतल, आते बिछा, नौ पैंतिछा ” यहाँ तक एक साँस में और फिर जोड़ लगाकर, ” झिंगुल बोले देल छौ पन्लह का पल चुन्ना। ”
” क्या-क्या ? झिंगुर बोले ” और धीरज को हँसी आ गयी।
कि इतने में एक आदमी तार-तार गंजी और लुँगी पहने पहुँचा।
” पाँव लागी माहटर साहेब ”
” खुश रहिए झिंगुर जी, कहिए कैसे आना हुआ। ”
” जी बिगना अयलक हे ”
” आया है क्यों ?”
वह देख लिया बिगना को, जो धीरज के पास बैठा था।
” अईं रे सरवा, गोरुअन के उधर जजात चरेला छोड़ के इहाँ ………… लीफोर्सी पढाई पढ़ रहले हें, चल ……….”
और पीटते-पीटते ले गया बिगना को उसका बाप। वह अवाक् कई-कई प्रश्नों के साथ देखता रह गया।
कुछ देर स्थिर हो, “यह किनकी स्लेट है। ”
एक छे-सात साल का छात्र सजा-सँवरा, दुबला-पतला खड़ा हुआ और डरते-डरते आते हुए सकुचा कर बोला, ” ज्ज जी ……… मे ……………”
“आपका ”
” ज्जजी हाँ ”
और नजदीक आ खड़ा हो गया। मगर इसकी स्लेट जाँच करने में उसका मन न रमा। बार-बार ध्यान बिगन पर ही केन्द्रित हो जाता था। बाकि जो जितनी स्लेटें थीं उसके पास सभी को अनमना होकर बस देख भर गया।
उसके पिता के पास की स्लेटों की मीनार भी ख़त्म हो चली थी। उस वक्त तक उसके पिता कई छात्र को सपसपा चुके थे, खजूर की छड़ी से। वह अपने पिता के चेहरे को पढ़ने का प्रयास किया। मगर पढ़ नहीं पाया। दीख ऐसे रहे थे मानों बिगन पर घटने वाली घटना का उनपर कोई असर ही न हो। ऐसी घटनाओं के अभ्यस्त दिख रहे थे।
“ललन, छुट्टी की घण्टी बजा दो ” उसके पिता एक लड़के को आदेश देते हुए बोले।
वह लड़का तुरत खड़ा हुआ। “जी अच्छे ” कहकर पीछे की तरफ बढ़ा। काला-कलूटा था, करीब बारह तेरह वर्ष का, दुबला-पतला सरकण्डे सा। विद्यालय का घड़ीघंट बजा दिया, मानो सत्यनारायण की कथा का कोई पाठ ख़त्म हुआ हो। इति श्री रेवाखण्डे सप्तमोध्यायः।
छात्र अपना-अपना बोड़िया-बिस्तर समेट कर गुदाल मचाते घर की तरफ भागे। सत्यनारायण मिस्र भी धीरज को साथ लेकर गाँव की तरफ चल दिए, एक राजपूत परिवार थे उनके यहाँ। उस दिन का आमंत्रण उन्हीं के यहाँ का था।
” बाबुजी …. बिगन का बाप बिगन को पीटते हुए ले गया और आपका उसपर कोई प्रतिक्रिया नहीं आया। ”
” क्या करता ? ”
” उसको रोकते या कम-से-कम समझाते ही। ”
” यहाँ कितने को रोकूंगा ? नौकरी करने आया हूँ या ………….”
” बाबुजी आप जिस जॉब में हैं, उसमें समाज के प्रति आपका दायित्व बढ़ जाता है। ”
” छोड़ो दायित्व-फायित्व, बहुत निभाया है अपना दायित्व। भैंस के आगे बिन बजाने से कुछ नहीं होता। अरे, ये तो चावल मिलने लगा है, तब फटाफट सभी अपने बच्चों का नाम लिखवा गए। एक-दो तो ऐसे आये, जिनके पास बच्चे नहीं हैं। मगर दबाव के कारण बोगस बच्चों का नाम डालना पड़ा। वे बस चावल मिलने वक्त आते हैं। ”
” फिर भी आप शिक्षक हैं शिक्षक का …………….”
धीरज की बात बहुत चोट कर गयी सत्यनारायण मिश्र को। वे तमतमा गए। उसी तमतमाहट में, ” यही फुटानी पादने यहाँ आया है, दो दिन में पटपटाकर मर जाओगे, यदि मैं अपना दायित्व निभाने लगूँ।
” देखिए बाबुजी, कोई बकार नहीं निकालिए। ” और धीरज चुप हो गया। दोनों सिर्फ गाँव की तरफ चलते रहे।
गाँव के बीच एक पोखर था, जो सुख चला था। नंगे-धड़ंगे कुछ बच्चे थे, कुछ जवान जिनमें एक-दो लंगोट में थे, एक-दो गमछी में तो कुछ लुँगी में और कुछ औरतें थीं। सभी लगे हुए थे कदई ( कीचड़ ) को हिड़ने में, थोड़ा ही पानी था उसको उपछ-उपछ कर। शायद केंकड़ों के झुण्ड में टेंगड़ा और चेंगना की खोज कर रहे थे।
धीरज और सत्यनारायण मिश्र गुजर रहे थे तो सभी प्रश्नात्मक भाव लिए उन दोनों को निहारने लगे और आपस में धीरज को इंगित कर काना-फुँसी करने लगे।
धीरज अपने-आप को सम्हालते हुए सत्यनारायण मिश्र के पीछे-पीछे चल रहा था। उसे लग रहा था कि वह मानो मार्च-पास्ट कर रहा हो और वे जो सावधान की मुद्रा में देख रहे थे, वे उससे सलामी लेने को तत्पर हों। पाँव डग भरने से भटकने लगे थे। वह डगमगाने लगा था। उसे ऐसा अनुभव हो रहा था कि कहीं कमर न लचक जाय। अपने शरीर को न चाहते हुए भी चमकाते हुए वह आगे बढ़ा जा रहा था। स्वाभाविकता की चाहत थी, अस्वाभाविकता से पीड़ित था।
पोखर के बगल में ही एक मिट्टी का मगर बड़ा आकर्षक गोबर से लीपा-पुता साफ़-सुथरा दालान के पास आकर वे दोनों रुके। एक एकदम जरावस्था में पहुँचे बुजुर्ग पलँगरी पर पड़े दिखे। भनक मिलते ही अपनी लाठी के सहारे खड़े हो गए।
” पाँव लगी माहटर साहेब ” थकी-थकी आवाज में बोले। आवाज में जो लय था, जो अभिनय था, धीरज उसका अनुभव पहली-पहली बार कर रहा था।
” ई कउन हथन ? ”
” मेरा मँझला लड़का ”
” पाँव लागी बाबु, आझे अइली इया ……………।”
वह अकचका गया। कुछ न बोला। सत्यनारायण मिश्र बोले, “हाँ आज ही आया है। ”
दालान में कई पलंगरियाँ लगी हुई थीं। जिनमें से एक पर वे दोनों बाप-बेटे बैठ गए। फिर सत्यनारायण मिश्र उन बुजुर्ग को भी बैठने के लिए आग्रह किया। तब उन्होंने कहा, ” हम आवइत हिअइ तनिक अगना में कह के ”
और लाठी ठकठकाते कुंहरते हुए अपने आँगन की तरफ चले गए।
“ये कौन हैं बाबुजी ?”
” ये हैं पलकधारी सिंह, गाँव में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा है, स्वतन्त्रता सेनानी भी रह चुके हैं। ”
” अच्छा ”
पलकधारी सिंह वापस आ गए और जिस पलँगरी पर बैठे थे, बैठ गए।
” ए ही घर छोड़ के बार-बार भाग जा हथी। ”
” हाँ ”
” काहे बाबु ? बाप-माय के अइसे परेसानी में डालल जा हे ?”
धीरज कुछ नहीं बोला। मन-ही-मन सोंचने लगा, “ये कौन जबाब-तलब कर रहे हैं, क्या ये सचमुच स्वतन्त्रता सेनानी रहे हैं ? उस वक्त ब्रिटिश सरकार भी तो जनता की सबकुछ थी। भले ही अब उसके शासन काल को गुलामी का काल कहा जाय। ब्रिटिश सरकार के जमाने के राष्ट्र-गान गाने वाले देशभक्त कहलाते होंगे। वे आमजन होंगे। सामान्य जन। स्वतन्त्रता के काम में लगनेवाले सब थोड़े थे, कुछेक लोग ही थे। जिनको समझ थी कि हम गुलाम हैं, हमें आज़ादी चाहिए। ”
उसे ऐसा लगता है कि कोई भी स्वतन्त्रता सेनानी बिना उसके पक्ष से अवगत हुए उसकी कार्य-पद्धति को अनुचित नहीं ठहरा सकता।
” आज जमाने बदल गेलक हे माहटर साहेब, कोई के लइकन आज कहना में न रहइत हथ। ”
धीरज कान में ठेंठी ठूँस चुपचाप सुनता रहा।
आगे वे चर्चा करने लगे आजादी के समय की कि गान्ही जी के आदेश पर इ त उ …।
एक लड़का एक बाल्टी में पानी और एक लोटा लेकर आया। सत्यनारायण मिश्र का चरण स्पर्श किया और अपने बाबा से बोला, ” सब तइयार हई ” और खड़ा हो गया आँगन तक ले जाने का इन्तजार करते हुए।
धीरज और सत्यनारायण मिश्र मुँह-हाथ धोने लगे।
दोनों आँगन में गए। तुलसी के चबुतरा तथा रामनवमी के हनुमान जी की धाजा की तरफ ओसारे में पीढ़ा-पानी लगा हुआ था। जमीन गोबर से लीपी हुई थी। मिट्टी की सोंधी महक बार-बार अपनी तरफ आकर्षित कर रही थी। कढ़ाई किया हुआ काठ का दो पीढ़ा था, काँसा का दो लोटा चमचमाता पानी से भरा हुआ तथा दो गिलास था।
चुल्हानी घर भी जहाँ पर खाने के लिए बैठा, वहाँ से साफ़ दिखती थी। चुल्हानी की किवाड़ ओठगी हुई थी, थोड़ा सा फाँट था, जिससे सिंह जी की पतोहुएँ बार-बार झाँक रही थीं। शायद तैयारी चल रही थी, व्यंजन परोसने की। कुछ देर में एक हाथ घुघा ताने एक महिला और एक लड़की चुल्हानी से निकलकर फुल की थाली और कटोरे में व्यंजनों के साथ उपस्थित हुईं और व्यंजन रखकर चली गयीं।
व्यंजनों में कच्ची था। समजीरवा चावल का भात, अरहर की दाल जिसमें बाद में एक चम्मच घी टपकाया गया। मुनगा की सुखी सब्जी, आलु का चिप्स, भिन्डी का भुजिया, चरौरी-तिसीअउरी, आम और कटहल का अँचार और असली काँसे के कटोरे में कटुई दही।
खाते-खाते तृप्त हो गया था धीरज। उसे सबसे अच्छा लगा मुनगा चुसना। मोटा-मोटा गरम-गरम मसालेदार मुनगा, इतना स्वादिष्ट कि क्या कहना ? वह ढेकरता तब उसे मुनगा की ही याद आती। और अच्छा लगा परोसने वालियों का आग्रह, “बस थोड़ा सान, थोड़ा सान आउ ले लेइ न। ”
तृप्त हो दोनों विद्यालय की तरफ चल दिए थे। विद्यालय पहुँचकर सत्यनारायण मिश्र दोपहर में धीरज को भी सोने को कहकर सो गए। मगर उसे नींद नहीं आ रही थी। क्या खाया, क्या पिया ? भूल गया था। बस उसका पेट भरा था, मिज़ाज़ भारी था और बिगना की याद सता रही थी।
शाम हो गयी थी। लड़के-लड़कियाँ खेलकूद में मशगूल थे। लड़के गुल्ली-डण्डा खेलते दीखते तो लट्टू लड़ाने वाला खेला, तो माल कबड्डी-गाङ्ग कबड्डी …………।
” बाँस का पत्ता खर-खर करता। कौन बहादुर हमको धरता। दल्ले छू ……।दल्ले छू ……। ”
तो ” इमली का पत्ता, चार चक्कता। दल्ले छू ……. दल्ले छू ……। ”
” सेल कबड्डी आस लाल, मर गया प्रकाश लाल।
मेरा मोंछ लाल-लाल, मेरा मोंछ लाल-लाल।। ”
” तबला में पइसा, लाल बगइचा। दल्ले छू ………दल्ले छू …। ”
” मनुआ धोबी, क़तर फुलकोबी। दल्ले छू ……… दल्ले छू ……। ”
लड़कियाँ कितकितवा खेलती दीखतीं, गाना-गोटी, तो
” अटकन चटकन, दही चटाकन। बरफु रे बरइला, सावन में करइला।
ए बाबा तूँ गंगे जइह, पकल-पकल करइली लइह।
नेउर बेचारी चोरी, धर कान ममोरी। ”
और फिर यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद सभी एक-दूसरे का कान पकड़कर ऐंठतीं और कहतीं, “चुटवा रे छुटवा, मामु के गगरिया काहे, फोड़लीं रे चुटवा। धत चुटवा, धत चुटवा। ”
पैर से एक-दूसरे को धक्का देकर खेल को समाप्त करतीं।
ललन नाम का लड़का जो चौथा में था। एक घोड़ी पर बैठकर आरी-पघारी घूम रहा था। वह धीरज के नजदीक आता तो कभी दूर चला जाता। वह अहरा के अलंग पर बैठ यह सब देख रहा था। घोड़ी पर ललन को देख उसे याद हो आये थे वे दिन जब उसके फूफा बाबा अपना घोडा उसके गाँव लाये थे। एकदम हट्ठा-कट्ठा गठीला बदन वाला घोड़ा था। उस वक्त वह बच्चा था, यही होगा आठ-नौ वर्ष का। उसके भईया बारह वर्ष के होंगे। फूफा बाबा उसके भईया को घोड़ा पर बिठाये थे और उसको उसके पिता ने बैठने नहीं दिया था।
“अभी लइका है गिर जायेगा। ”
बाद में उसके भईया को उसके पिता के फुफा अपने गाँव भी ले गए थे। लौटने पर भईया डींग हाँकते या क्या “अरे ! हम तो उहाँ फुफा बाबा के घोड़ा अकेलहीं खूब दउड़इलिअउ। अब कउनो घोड़ा रहे, हम ओकरा सारे के सम्हारिये लेबई। ”
उसे थोड़ी जलन होने लगी थी उनसे, क्योंकि उसकी उपेक्षा हुई थी और भैया को उपलब्धि मिली थी।
उसको एक घटना और याद हो आयी, जब वह अपने पिता के साथ ही रहता था और पास के ही करीब एक कोस के फ़ासले पर एक उच्च विद्यालय था, वहाँ पढ़ने जाता था। उस वक्त उसके पिता मायापुर में पोस्टेड थे और वह मलहद के उच्च विद्यालय में पढ़ने जाता था। मायापुर यादवों का गाँव था। जिनके दलान पर रहता था उनके पास एक घोड़ी थी। एक दिन उनकी घोड़ी की सवारी उसने भी करने का मन बनाया, उनके ही लड़कों की तरह। घोड़ी जब घर पर रहती थी तो सुबह-शाम उनके लड़के खुब दौड़ाते थे। बिना कोई आब-ढाब के, न कोड़े होते थे, न लगाम। लगाम की जगह पर एक पगहा टाइप की रस्सी घोड़ी के जबड़े में फँसा दी जाती। बस घोड़ी सवारी के लिए तैयार हो जाती थी और तब चल घोड़ी अब अरिए-अरिए।
लड़कों ने घोड़ी को तैयार किया। वह भी सवारी करने को तैयार हो गया था। वे लड़के उछलकर ही चढ़ जाते थे घोड़ी पर, क्योंकि घोड़ी नाटी कद की थी। मगर वह उन लड़कों से बड़ा होते हुए भी घोड़ी पर चढ़ने में असमर्थ था। वह नाद पर चढ़ा, दो-तीन लड़के घोड़ी को इधर-उधर से पकड़े हुए थे, वह इसलिए कि घोड़ी भड़क न सके। वह थोड़ा-थोड़ा डरने लगा था। मगर डरते-डरते घोड़ी की पीठ पर बैठ गया था, घोड़ी के काँधे का केस पकड़कर। फिर लगाम थमाया गया था और कुछ सिद्धांत बताये गए थे।
” दुनों पँउआँ से गते-गते पीठिआ में एड़ी लगयमहूँ तब घोड़िया चले लगतो, जोर-जोर से लगयब त भागे लगतो। रोके ला होतो त दुनों एड़िया पीठिया में सटा दीहs । लगाम के जिधर मोड़बs , उधरे घोड़िया मुड़तबs , एकदम जइसे साईकिल चलाबल जा हे। समझल न। ”
” हाँ भाई ”
उसने एड़ी लगाई थी और घोड़ी बढ़ चुकी थी। उसे बड़ा अच्छा लग रहा था। लगा था मानो उसे घोड़ी हाँकने का वर्षों का अनुभव हो। अलंग पर आ गया था, पाँच-छह टोपरा तक ले गया था। फिर वहाँ से वापस किया था। इसी तरह तीन-चार बार दौड़ाया था।
वह एड़ लगाता जाता था, घोड़ी और तेज और तेज होती जाती थी। लड़के बाहवाही करते हुए पीछे-पीछे दौड़ते थे। एकाएक लगाम बाएँ तरफ मुड़ गया था और घोड़ी अलंग से सीधे गेहूँमट्टी टोपरा में कूद गयी थी। उछलती-कूदती-फाँदती हुई घोड़ी भागने लगी थी। वह अनवैलेंस हो गया था, लगाम छूट गया था और नीचे आ गया था। चोटें भी आयी थीं। जहाँ गिरा था, वहाँ रेंगनी का काँटा था। कुछ देर तक तो उसका होशोहवास एकदम गुम रहा। प्रत्यक्षदर्शी जो थे, उन्होंने उसे कहा था, “बड़ी भाग से बचलs बाबा, न त आज गोले हो जयत हल। पीठिया से सीधे ससर के घोड़िया के पऊँए तर गिरलs हल। ”
कबड्डी देखकर उसका भी मन ललक रहा था, क्योंकि माल कबड्डी खेलने का वह भी बहुत शौक़ीन रहा है, माल बनकर नहीं, खिलाड़ी बनकर। बचपन में वह “बीती-बीती ” करते हुए दूर तक चला जाता था और दूसरे तरफ का एक-न-एक खिलाड़ी को मारकर ही वापस आता था। गांग कबड्डी वह बचपन से ही खेलने से डरता है। कई बार गांग कबड्डी हिम्मत बाँधकर खेला भी तो नाक-मुँह छिलवाकर मरकर किनारे बैठ गया। बिना चिंता किये कि टीम हार रही है या जीत रही है। वह अपने साथियों के साथ खेलने निकलता तब वह माल कबड्डी खेलने का ही सलाह देता था। उसकी सलाह कभी मान ली जाती थी तो कभी उसके जुझारू साथियों के बहुमत होने के कारण नहीं भी मानी जाती थी। मजबूरन उसे या तो किनारे हटना पड़ता था या गांग कबड्डी खेलना पड़ता था।
बिगन बच्चों के बीच कहीं नहीं दीख रहा था। नित्यक्रिया से निवृत होने का समय हो गया था, सिग्नल मिलने लगी थी। अतः धीरज विद्यालय का अलमुनिया का लोटा उठाकर चल दिया था केतारी के खेत की तरफ।
धीरज लौट रहा था। एक जगह अलंग टूटकर खँड़हु का रूप ले लिया था। जिसमें अभी भी छाती भर पानी जमा था। रास्ता कट गया था अतः खँड़हु पार जाने के लिए अलंग से नीचे उतरकर ढेला वाला खेत से होकर जाना पड़ता है। लोगों के आने-जाने से टेम्पोरेरी राह बन गयी थी। गदहबेर हो गयी थी। गाँव की भैंसे वहीं खँड़हु में धोई जा रही थीं। नजदीक से गुजरने पर भैंस धोनेवाले दिखने लगे थे।
भैंस धोने में दो-तीन तीन फँकवा टीका वाले त्रिदण्डी स्वामी के चेले थे, जिनके माथे में आधे-आधे हाथ के गिट्ठी पड़े टीक थे। एकदम दपादप साफ़ दरजी का सिली हुई खादी की गंजी और कमर से जांघ तक खोंसे हुए धोती में थे जिनमें एक के बरहा जनेऊ से लटका चाभी का गुच्छा झनझना रहा था। सभी भैंस को बड़ी तल्लीनता से धो रहे थे और राग अलाप रहे थे –
“करवा जोरि माँगि चरनियां, हम पखार स्वामी जी।
रउआ देतीं चरनियाँ लेतीं हम पखार स्वामी जी।
नाहिं गंगाजल ले आइब, अरु ना जमुना के बुलाइब।
अपना अँसुवन से लेतीं चरन पखार स्वामी जी।। करवा जोरि …………। ”
कुछ धारीदार अंडरवियर और गंजी पहने कमर में गमछी बाँधे लोग थे और एक लड़का था बिगन। बिगन एकदम उघारे-पुघारे नंगे-धड़ंगे भैंस की पीठ पर कभी बैठ, कभी पसरकर भैंस को खूब खलर-खलर कर धो रहा था सबों की तरह पूरी दक्षता के साथ। धीरज पास से गुजर रहा था। तब जो राग अलाप रहे थे, उन्होंने अपना राग अलापना बन्द कर दिया था। तब धीरज की तरफ केंद्रित हो आपस में कानाफूसी करने लगे थे। एक तीनफँकवा टीकाधारी उसकी तरफ व्यंग्य से देखते हुए बिगन से पूछा, ” ई चस्मलिया बाबु कहाँ के हई रे ? केकरा किहाँ अयलई हे ? ”
बिगन क्या बताया वह सुन नहीं पाया, क्योंकि वह आगे बढ़ गया था।
रात हो आयी थी। धीरज और उसके पिता सत्यनारायण मिश्र एक खलिहान में पुआल के ढेर पर चादर बिछाकर पड़े हुए थे। चाँदनी रात थी। सर्वत्र हल्की-हल्की दूधिया प्रकाश फ़ैली हुई थी। तरेगन टिमटिमा रहे थे। गाँव की तरफ से ढोलक-झाल-करताल बजने की आवाजें आ रही थीं। मालुम होता था, चईतार हो रहा हो। धीरज का मन ललकने लगा था। उसे लगा कि चलें चईतार सुनने।
बचपन में जब वह नौ-दस वर्ष का होगा। तब उसके पिता गोह थाना के एड़ड़ी गाँव में कार्यरत थे। वह वहीं अपने पिता के साथ रहता था। एकबार रविवार को वह अपने पिता के साथ गोह बाजार करने गया था। एक ढाई रुपये में टनकदार आवाज फुर्र ……… निकालने वाला भिसिल अपने पिता से जिद करके खरीदवा लिया था। उसके पिता ने भिसिल खरीदते हुए कहे था कि “का खालसीगिरी करना है। ” मगर वह “न हम भिसिल खरीदवे करेंगे। ” भिसिल खरीदा गया था। शाम तक गोह से लौट आया था। जिनके दालान पर रहता था, उनके यहाँ ही उस दिन चईतार था। चईतार में वह खूब झूम-झूम कर करताल बजाया था। झाल और ढोलक लय से बजाना आसान नहीं है मगर करताल बजाना उसे आसान लग रहा था। उसे लगता था जैसे ढोलक बज रहा है उसी ताल पर वह अपना करताल भी बजा रहा है। ढोलक के ताल के साथ ही झूमता-नाचता भी था। कोई रोक-टोक भी नहीं करता था। बदले में सभी वाहवाही देते थे और वह फुल कर कुप्पा हो जाता था। ” वाह बाबा ! वाह बाबा !! बहुत बढ़िया, बहुत बढ़िया !!”
सबों ने सात चईतार गाकर चईतार के कार्यक्रम को विराम दिया था। दालान के छत पर चईतार था। चईतार ख़त्म हो गया था। सभी चले गए थे। उसके पिता उसे सोने को कह सो गए थे। उसके साथ जिन्होंने उससे घनिष्ठता बना रखी थी वे और जिनका दालान था उनके बच्चे साथ थे। दिरखे पर रखी ढिबरी का मद्धिम प्रकाश उसे और उसके साथियों को मिल रहा था। वह अपने हॉफ पैन्ट के पॉकेट से भिसिल निकालकर उन्हें दिखलाया कि ” कल से परेड के समय भिसिल बजेगा। ”
सभी भिसिल देख अचम्भित हो गए। उससे माँगने लगे, “तनिक देखिओ। ”
“न जूठा दोगे तब ”
” अच्छा तनी बजा के देखावs तो ”
” न रात है ”
” न …………. बजाव न। ” सभी लड़के जिद करने लगे।
बाभनों का गाँव था, कुच-कुच अन्हरिया रात थी। उसने भिसिल बजा दिया था। एक टनकदार आवाज निकली, ” फुर्र र र र ………। ”
एकाएक पूरा गाँव जो शान्त था, खलबली मच गयी थी। गाँव के चारों तरफ से बत्तियां जलने लगी थीं। थोड़ी देर बाद गाँव में भगदड़ मच गयी। दूसरों के दालान में, खेत-खलिहान में सोये हुए लोग जागकर अपने-अपने घर की तरफ भागने लगे।
” भागिहें रे, भागिहें रे, गँउआँ छेंका गेलउ। ”
धीरज तो एकदम अचम्भित कुछ समझ नहीं पा रहा था कि यह हो क्या रहा है ? उसके पिता उसे डाँटने लगे थे। उसका सिट्टी-पिट्टी गुम हो गया था। उसके पास जो उसके मित्र थे, उन्हें ले जाने उनके बाप-भाई आ गए।
” चल रे हुड़दंगबा, जल्दी से चल ”
” माहटर साहेब, बरेठा लगा लिह ”
” अरे भाई, हदसिये नहीं, कोई विशेष बात नहीं है। मेरा लड़का जिद करके गोह से आज एक भिसिल खरीदकर लाया है, वही बजा दिया है। ”
” धत तेरे की, हमनी त समझली …………….”
” काहे पंडी जी, रात में भिसिल बजावल जा हे ”
” हुड़दंगवे न कहा ” और करारा दो तमाचा जड़ दिए थे हुड़दंगबा के बाप हुड़दंगबा के गाल पर। ढिबरी के मद्धिम प्रकाश में हुड़दंगबा बेचारा का मुलायम गाल दप-दप लाल दिखने लगा था।
गली में अभी भी भगदड़ मची हुई थी।
” भागिहें रे, भागिहें रे ………….”
” कउन हें हो रमरतना …………”
” हाँ चाचा, अरे इ माहटर साहेब के लइकबा भिसिल बजा देलथि हल ”
तब चार-पाँच आदमी और ऊपर आ धमके थे। उसे समझाने-बुझाने लगे थे। वह सारा दोष हुड़दंगबा पर मढ़ सीधे बच निकला था। हुड़दंगबा सचमुच में हुड़दंग था। तभी उसका पुकारू नाम हुड़दंग पड़ा था।
धीरे-धीरे सबकुछ सामान्य हो गया। तब गाँव से बेलाग बने नए विद्यालय भवन में कैम्प किये हुए सी. आर. पी. एफ. के जवान की एक टोली दलान में आयी थी और धीरज को शाबासी देकर गयी थी। तब धीरज के पिता एकदम डर से गए थे।
हाँ तो, गाँव से चईतार में बजने वाले ढोलक-झाल का ताल आ रहा था।
” बाबुजी चईतार सुनने चलिए न ”
” अब शहर में रहने लगा फिर भी तुमको चईतारे याद आता है ?”
” बहुत दिन हो गया चईतार सुने, मैं जाऊं ”
” अरे ! ये भुन्टोली से आवाज आ रही है ”
” क्या होगा ? ”
” भुन्टोली में जाओगे ? कल महादेथान चईतार होगा। वहाँ चलना। विडिओ भी आमन्त्रित है। ” उसे जिस तरह बच्चों को समझाया जाता है, उस तरह से समझाने लगे थे उसके पिता सत्यनारायण मिश्र।
” मेरा तो मन कर रहा था कि मैं …………।”
” तुम्हारा क्या मन करता है, वह मैं जानता हूँ। चुपचाप सो जाओ। ”
” न मैं तो ……………”
“ओह ! तुम मुझे यहाँ तंग करने आया है। ”
” अच्छा नहीं जाऊंगा, सोईये और क्या ?”
धीरज कुछ देर सोने का प्रयास करता रहा। उसे नींद कहाँ आ रही थी? रात के करीब ग्यारह बज रहे थे। सत्यनारायण मिश्र सोने लगे थे। धीरज के दिमाग में बस ढोलक बज रहा था। वह चाँद को चिताने लेटे-लेटे देखे जा रहा था। चाँद आँखों को शीतलता दे रहा था, अपनी चाँदनी से। बासन्ती बयार बह रही थी।
” बाबुजी ”
” अं अं ऐं …………” एकाएक जागते हुए अकबका गए थे सत्यनारायण मिश्र। धीरज यही सोंच उन्हें पुकारा था कि अभी वे जगे होंगे।
” न नहीं, कुछ नहीं, सोईए ”
” बोलो न, क्या कह रहे हो ? ”
” बाबुजी, बिगन …………।”
” बिगन के अलावा कोई तुमको यहाँ और नहीं दीखता ”
” बिगन का बाप क्या करता है ? ”
सत्यनारायण मिश्र कहने लगे, ” करेगा क्या ? मुसहर-भुइँया। आजकल ई लोग काम से ज्यादा झण्डा थामने में ही लगा रहता है। मनबढ़ू है। इसकी औरत कहीं भाग गयी है। कुछ गोरु-डांगर बटइया पर रखे हुए है। सरकार से उसको सूअर पालने के लिए लोन मिला है। ”
फिर उसने पूछा, “कल बिगन स्कुल आएगा या नहीं ?”
” उसकी फिकर तुम क्यों उठाये हुए हो ?” उसे समझाने लगे, ” देखो गाँव को देखकर चला जाता है। जैसा देश-वैसा भेष। देखा, कितनी खातिरदारी होती है ? ”
” मैं तो यदि शिक्षक रहूँ तो इस तरह की ……………”
” रहने दो फिलॉस्फी, ये सब कहने के हैं करने के नहीं। ”
” नहीं बाबुजी, बिगन जैसे लड़कों को पढ़ाना चाहिए। बिगन के बाप से बात करके उसे समझाइये। आपका दायित्व है, बिगन जैसे लड़कों को ही पढ़ाना। बाकि तो सभी अपने-अपने लड़कों को पढ़ा ही लेंगे। ”
” जाओ जाओ, पहले मास्टरी की नियुक्ति तो लो। फॉर्म भरवा ही दिया हूँ, कम्पटीशन की तैयारी करो। यहाँ किसलिए आ गए हो। ”
” हम बनें या न बनें, आपका दायित्व बनता है या नहीं। ”
” बाबु हो, ज्यादा लेक्चर मत पिलाओ। अबतक कितनो को पढ़ा के डॉक्टर-इंजीनियर-कलक्टर बना दिया हूँ। दिन-रात यही कर रहा हूँ। अब जिसके भाग में जो होगा वही न बनेगा। ”
” फिर भी बाबु जी …………।”
” फिर भी क्या ? रात काफी हो गयी है सो जाओ। ”
” अच्छा बाबुजी, कल मैं चला जाऊँगा। ”
“अब सोने भी दो, कल से गाँव का सर्वे करना है। ”
वे दोनों सो गए। मगर धीरज को नींद कहाँ आ रही थी। एक शिक्षक को भी कितना काम दे दिया जाता है ? पल्स-पोलियो की खुराक खिलानी है तो शिक्षक, वोटर आई डी-आधार कार्ड बनवानी हो तो शिक्षक। चावल बंटवाना हो तो शिक्षक। जनगणना में शिक्षक, सर्वे में शिक्षक। सरकारी शिक्षक मतलब मल्टीपर्पस वर्कर।
धीरज सुबह उठा। नित्यक्रिया से निवृत हुआ। अपना जवाहर झोला सुलझाया। विद्यालय सुबह से ही था। अतः बच्चे आने लगे थे। गाँव से एक लड़का टिकरी-मुठरी ले आया था। उसका नास्ता किया और चलने लगा।
” चलता हूँ बाबु जी ”
” जा रहे हो ”
” हाँ ”
” अच्छा सम्हलकर रहना। ठीक ढंग से पढ़ना-लिखना। ज्यादा इधर-उधर मत जाना। ” सत्यनारायण मिश्र धीरज को इस तरह सीख दे रहे थे मानो धीरज अब भी बच्चा हो। आखिर शिक्षक थे।
” अच्छा तब ” काले चश्में के अन्दर उसकी आँखें नम हो गयी थीं। वह अभिवादन कर काँधे में अपना जवाहर झोला टाँग चल दिया था।
चार-पाँच गोरु-डाँगरों के साथ एक भुर्री भैंस की पीठ पर बिगन बैठा जोर-जोर से राग अलाप रहा था —
“कक्का ककोल किया कम किया काम किया कलना, कलियाली लाम छिउजी।
खख्खा खखोल किया ख़म किया खाम किया खलना, खलियाली लाम छिउजी। ”
धीरज गुजर रहा था। उसने पुकारा —
” पलनाम नयका माहतल छाहेब, काहे चलल जाइत ह। ”
” हाँ, न नहीं हो, मैं फिर आऊँगा ”
” हाँ, अईह, जलूल अईह, आछा जोहबो !”
हाथ हिलाते हुए उसने विदाई दी।
धीरज ” ठीक भाई “कहकर इस तरह चला, मानो उसका मन यहीं छूट गया हो और वह केवल अपना शरीर ढोये जा रहा हो।
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