प्रकृति चिंतक खग समाज (आपसी वार्तालाप)
विषय- “हमारी अधूरी कहानी”
शीर्षक—- “प्रकृति चिंतक खग समाज” (आपसी वार्तालाप)
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कहाँ बने अब नीड़ हमारा कहाँ मिले दाना पानी।
ऊँचे ऊँचे महलों से गूंजे हमारी अधूरी कहानी।।
उदास मन से करती चिड़िया फरियाद,
उन मस्त मस्त दिनों की आती फिर याद,
जब हरे भरे पेड़ों पर बना था अपना आशियाना,
मानव की घातक मन्शा से है सब बरबाद।
कहाँ बने अब नीड़ हमारा कहाँ मिले दाना पानी।
ऊँचे ऊँचे महलों से गूंजे हमारी अधूरी कहानी।।
डाली डाली पत्तों के झुरमुट खिलती मधुर हँसी थी,
घने पेड़ों की घनी ओट में बस्ती एक बसी थी,
चहचहाना और खुशियाँ खूब बरसाना,
प्रेम भावना मन शहद धारा में रसी थी।
कहाँ बने अब नीड़ हमारा कहाँ मिले दाना पानी।
ऊँचे ऊँचे महलों से गूंजे हमारी अधूरी कहानी।।
प्राण वायु आधार बने घने वृक्ष लगते प्यारे है,
ईंधन चारा सब कुछ मिलता दाता जग में न्यारे हैं,
कैसा होता विकास घुलता जहर प्रदूषण का,
प्रकृति से प्यार नहीं खोखले ये सब नारे है।
कहाँ बने अब नीड़ हमारा कहाँ मिले दाना पानी।
ऊँचे ऊँचे महलों से गूंजे हमारी अधूरी कहानी।।
कंक्रीट नहीं श्रृंगार धरा का मेरा कहना मानों,
फलती फूलती हरियाली में पुष्प
सौरभ छानों,
पेड़ों की जड़ में छुपा है हर रत्न खजाना,
बच्चा बच्चा पौध लगाओ दायित्व अपना जानो।
कहाँ बने अब नीड़ हमारा कहाँ मिले दाना पानी।
ऊँचे ऊँचे महलों से गूंजे हमारी अधूरी कहानी।।
बनती शोभा जग की हम भी इसका हिस्सा है,
उन्नत सभा समाज में लालच का ही किस्सा है,
बढ़ती संख्या शहरों की ग्राम्य जीवन शैली कहाँ,
धन बल की अंध दौड़ में बनती अंधी लिप्सा है।
कहाँ बने अब नीड़ हमारा कहाँ मिले दाना पानी।
ऊँचे ऊँचे महलों से गूंजे हमारी अधूरी कहानी।।
बन प्रतापी मानव आज भाव दान के उकेरे है,
बालकनी में जल का पात्र छत पर दाना विखेरे है,
दाना पानी मिल भी जाये मिलता कहाँ रहन ठिकाना,
बिजली के खम्बों की तारे भय मौत का घेरे है।
कहाँ बने अब नीड़ हमारा कहाँ मिले दाना पानी।
ऊँचे ऊँचे महलों से गूंजे हमारी अधूरी कहानी।।
शीला सिंह बिलासपुर हिमाचल प्रदेश 🙏