प्यार : व्यापार या इबादत
अब कहाँ वो प्यार और वो बातें प्यार की ,
कागज़ के फूल हैं ना इन में खुशबू बहार की ।
गुंजा करते ही थे नगमें फिज़ाओं में कभी ,
अब तो बस शोर है उड़ गयी नींद करार की ।
प्यार जब से तुलने लगा दौलत के पुलिंदों से ,
खत्म हो गयी बातें वफा ,ईमान ओ इसरार की ।
तू नहीं तो कोई और सही, वो नहीं तो और सही ,
रिश्ते बदलने लगे हैं जनाब ! मानिंद पेरहनों की ।
प्यार नाम है कुर्बानी का,खुदा का दूसरा नाम ,
मगर अब इसमें बू आती है हवस औ बेवफाई की ।
प्यार करना है तो उसे हर हाल में निभाना सीखो ,
अपनी खुदी को मिटाकर मिसाल कायम करो इसकी ।
प्यार करो खुदा से और या फिर अपने माँ -बाप से ,
सबसे पाक औ सबसे अज़ीम है धूल इनके कदमों की ।
इजहार ए मूहोबत पाश्चात्य सभ्यता का छोड़ भी दो ,
बड़े ईमान से जी हजूरी में दर पर सदा दो यार की ।
अज़ीम प्यार वो जो अपनी खुदी को भूल फना हो जाए ,
‘अनु’ करे उसे सलाम जो खुदा में देखे शक्ल अपने यार की ।