“पैरी”
आज छोटी मालकिन कामिनी देवी का मन खिन्न था। पैरी सवालिया निगाहों से छोटी मालकिन की ओर देखी। उसकी रक्तिम आँखें रात भर जागरण का सबूत थीं, जो खुशी में नहीं, वरन् फिक्र में रात भर सोई न थीं। पैरी उनके नजदीक फर्श पर बैठकर उनके तलवों को सहलाने लगी। सोने का पायल छोटी मालकिन के पैरों पर आभूषण कम बेड़ियाँ अधिक लग रहा था। छोटी मालकिन अपनी वेदना व्यक्त करती हुई बोली- “पैरी, वो औरत क्या करे, जो सुहागन होकर भी कुँवारी जैसी जिन्दगी जिए… अकेलापन जिनका साथी बन जाये।”
पैरी ने जवाब में कुछ नहीं कहा। वह कोई हाव-भाव तक प्रगट न की, मानो आज उसने मौन की चादर ओढ़ ली हो।
रात में पैरी की आँखों में नींद न समाई। कभी माई, कभी मौसी, कभी चन्द्रमा देवी तो कभी छोटी मालकिन कामिनी देवी के दर्द उसे बेचैन करती रही। वह सोचने लगी- क्या यह नारकीय जीवन ही नारी का जीवन है? ऐसे जीने से तो न जीना ही बेहतर है। मर्दों की दुनिया में औरत सिर्फ मांस की पुतली जन्मी है; उनके मनोरंजन के लिए, उनकी सन्तुष्टि के लिए, उनकी सेवा के लिए और उनका वंश बढ़ाने के लिए।
शुरू-शुरू हवेली में मैंने खुद को सुरक्षित पाया था, किन्तु अब असुरक्षा के बाज मण्डराते हुए से लगते हैं।
अब आठों पहर सोते-जागते, उठते-बैठते पैरी के कान छोटी मालकिन के कमरे के आसपास ही लगे रहते थे। कई बार वह उनके कमरे से आते रुदन को हवाओं में महसूस कर चुकी थी। साथ ही छोटे मालिक के नशे में लड़खड़ाती हुई ये तेज आवाजें भी कि- “उसे इस हवेली में ले आऊँ तो कौन रोक सकता है मुझे? तेरे लिए सब सुविधा है यहाँ… तुम खाओ, पीयो और पड़े रहो। जुबान खोलने की जरूरत नहीं, वरना…?
सुबह छोटी मालकिन के शरीर पर उबटन लगाती हुई पैरी ने लिखा- “जुल्म सहना भी एक तरह का जुल्म है। हद से परे कुछ भी ठीक नहीं। मैं तो भला गूंगी हूँ, लेकिन आप गूंगी मत बनिए।”
हथेली की वह अदृश्य इबारत छोटी मालकिन की आत्मा को तीर सी वेधती चली गई। फिर उनके मुँह से निकला- “तुम पैरी नहीं, वरन् प्रेरणा हो। मेरा शत शत नमन् है तुझे…।”
( ‘पूनम का चाँद’ : कहानी-संग्रह में संकलित कहानी- “पैरी” से कुछ अंश)
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति +
श्रेष्ठ लेखक के रूप में विश्व रिकॉर्ड में दर्ज।