परिंदों की भाषा
परिंदों की भाषा
// दिनेश एल० ” जैहिंद”
देख परिंदे दुश्मन को
फर्र-फर्र कर उड़ जाते ।
किसी वार को भाप के
वो झटके से मुड़ जाते ।।
कैसा भी जाल फैलाए
कोई बैरी आते-जाते ।
चतुराई उनकी देखिए
उनके झाँसे में न आते ।।
है उड़ान उनकी ऐसी
मनुष्य भी ललचाए ।
देख उड़ते उनको तो
हरदम हृदय को भाए ।।
ज़मीं से क्षितिज तलक
हर जगह उनका घर है ।
हम सीमाओं में बँधकर
मन में रखे अभी डर हैं ।।
सीमा-सरहद से दूर वो
ना झँझट कोई पाले हैं ।
अपनी धुन के पक्के वो
जग में सबसे निराले हैं ।।
ले साजिंदे सूर उनसे
मधुकर राग बनाते हैं ।
मीठे स्वर को लेकर
कोयल-सा वो गाते हैं ।।
कुक्कड़ु-कू की बाग लगा
प्रातकाल हमें जगाते हैं ।
मधुर गीत सुनाकर हमें
सबके मन को हर्षाते हैं ।।
बुलबुल, मोर, पपीहा
सबकी बोली है मीठी ।
पर नर-नारी की बोली
होती क्यूँ ऐसी तीखी ??
भिन्न-भिन्न रंग के होकर
एक संग ही वो रहते हैं ।
क्या तुम्हें पता चला है
कौन-सी भाषा कहते हैं ।।
=== मौलिक ====
दिनेश एल० “जैहिंद”
05. 07. 2017